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________________ परमात्मप्रकाश अर्धोन्मीलितलोचनाभ्यां योगः किं आच्छादिताभ्याम् । एवमेव लभ्यते परमगतिः निश्चिन्तं स्थितैः ।। १६ ।। आगे निश्चयसे चिन्ता रहित ध्यान ही मुक्तिका कारण है, ऐसा कहते हैं(ग्रर्धोन्मीलितलोचनाभ्यां ) आधे उघड़े हुए नेत्रोंसे अथवा ( कंपिताभ्यां ) बन्द हुए नेत्रोंसे (fr) क्या (योगः ) ध्यानकी सिद्धि होती है, कभी नहीं । ( निश्चिन्तं स्थितैः ) जो चिन्ता रहित एकाग्रमे स्थित हैं, उनको ( एवमेव ) इसी तरह ( लभ्यते परमगतिः) स्वयमेव परमगति (मोक्ष) मिलती है । ↑ २५७ भावार्थ - ख्याति [ बड़ाई ] पूजा [ अपनी प्रतिष्ठा ] और लाभ इनको आदि लेकर समस्त चिन्ताओंसे रहित जो निश्चिन्त पुरुष हैं, वे ही शुद्धात्मस्वरूपमें स्थिरता पाते हैं, उन्हीं के ध्यानकी सिद्धि है, और वे ही परमगतिके पात्र हैं ।। १६६ || व्यथ जोय मिल्लाह चिन्त जइ तो तुट्टइ संसार | चिंतासत्तउ जिणवरु वि लहइ ण हंसाचारु ॥ १७० ॥ योगिन मुञ्चसि चिन्तां यदि तत्तः त्रुट्यति संसारः । चिन्तासक्तो जिनवरोऽपि लभते न हंसचारम् ॥ १७० ॥ आगे फिर भी चिन्ताका ही त्याग बतलाते हैं - ( योगिन् ) हे योगी, (यदि ) जो तू (चितां सुचसि) चिन्ताओं को छोड़ेगा ( ततः ) तो (संसारः) संसारका भ्रमण (त्रुट्यति) छूट जायगा, क्योंकि ( चितासक्तः) चिन्तामें लगे हुए (जिनवरोऽपि ) छद्मस्थ अवस्थावाले तीर्थंकरदेव भी ( हंसचारं न लभते ) परमात्माका आचरणरूप शुद्ध भावों को नहीं पाते । भावार्थ - हे योगी, निर्मल ज्ञान दर्शन स्वभाव परमात्मपदार्थ से परामुख जो चिता-जाल उसे छोड़ेगा, तभी चिन्ताके अभाव से संसार भ्रमण टूटेगा । शुद्धात्मद्रव्यसे विमुख द्रव्य क्षेत्र काल भव भावरूप पांच प्रकारके संसारसे तू मुक्त होगा । जबतक चिन्तावान् है, तबतक निर्विकल्प ध्यानकी सिद्धि नहीं हो सकती। दूसरों को तो क्या बात है, जो तीर्थङ्करदेव भी केवल अवस्था के पहले जबतक कुछ शुभाशुभ चिन्ताकर सहित हैं, तबतक वे भी रागादि रहित शुद्धोपयोग परिणामोंको नहीं पा सकते | संशय विमोह विभ्रम रहित अनन्त ज्ञानादि निर्मलगुण सहित हंसके समान उज्ज्वल
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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