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________________ परमात्मप्रकाश [ २५५ -: इस प्रकार परमोपदेशके कथनकी मुख्यतासे दस दोहे कहे हैं । आगे परमोपदेश भाव सहित सव परिग्रहका त्याग करने से संसारका विच्छेद होता है, ऐसा दो दोहोंमें निश्चय करते हैं- (सकला अपि संगाः) सब परिग्रह भो (न मुक्ताः) नहीं छोड़े, (उपशमभावः नैव कृत ) समभाव भी नहीं किया (यत्र योगिनां अनुरागः) और जहां योगीश्वरोंका प्रेम है, ऐसा (शिवमार्गोऽपि) मोक्ष-पद भी (नैव मतः) नहीं जाना, (घोरं तपश्चरणं) महा दुर्धर तप (न चीणं) नहीं किया, (यत्) जो कि (निजबोधेन सारं) आत्मज्ञानकर शोभायमान है, (पुण्यमपि पापमपि) और पुण्य तथा पाप ये दोनों (नव दग्धं) नहीं भस्म किये, तो (संसार:) संसार (कि छिद्यते) कैसे छूट सकता है ? - भावार्थ-मिथ्यात्व [मतत्त्व श्रद्धान] राग [प्रीतिभाव दोष] दोष [वैरभाव] देव [स्त्री पुरुष नपुसक] क्रोध, मान, माया, लोभरूप चार कषाय, और हास्य, रति, अरति, शोक, भय, ग्लानि-ये चौदह अन्तरंग परिग्रह, क्षेत्र [ग्रामादिक वास्तु [गृहादिक] हिरण्य [रुपया पैसा मुहर आदि] सुवर्ण [गहने आदि] धन [हाथी, घोड़ा आदि] धान्य [अन्नादि] दासी, दास, कुप्य [वस्त्र तथा सुगन्धादिक], भांड [वर्तन आदि] ये दस तरहके · वाहरके परिग्रह, इस प्रकार बाह्य अभ्यन्तर परिग्रहके चौबीस भेद हए, इनको नहीं छोड़ा। जोवित, मरण, सुख, दुःख, लाभ, अलाभादि में समानभाव कभी नहीं किया, कल्याणरूप मोक्षका मार्ग सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र भी नहीं जाने । निजस्वरूपका श्रद्धान, निजस्वरूपका ज्ञान, और निजस्वरूपका आचरणरूप निश्चयरत्नत्रय तथा नव पदार्थोंका श्रद्धान, नव पदार्थोका ज्ञान, और अशुभ क्रिया का त्यागरूप व्यवहाररत्नत्रय-ये दोनों ही मोक्षके मार्ग हैं, इन दोनोंमेंसे निश्चयरत्नत्रय तो साक्षात् मोक्षका मार्ग है, और व्यवहाररत्नत्रय परम्पराय मोक्षका मार्ग है। ये दोनों मैंने कभी नहीं जाने, संसारका ही मार्ग जाना । अनशनादि बारह प्रकारका तप नहीं किया, बाईस परोपह नहीं सहन की। तथा पुण्य सवर्णकी बेडी. पाप लोहेकी वेड़ी, ये दोनो बन्धन निर्मल आत्मध्यानरूपी अग्निसे भस्म नहीं किये। इन बातोंके बिना किये संसारका विच्छेद नहीं होता, संसारसे मुक्त होनेके ये ही कारण हैं। ऐसा व्याख्यान जानकर सदैव शुद्धात्मस्वरूपकी भावना करनी चाहिये ।।१६६-१६७।। अथ दानपूजापञ्चपरमेष्टिवन्दनादिरूपं परंपरया मुक्तिकारणं श्रावकधर्म कथयति
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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