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________________ परमात्मप्रकाश २२८ ] पराङ मुख जो वीतराग निजानन्द एक अखण्ड स्वभावरूप शुद्धात्मा उसमें लीन होकर । हमेशा भावना करनी चाहिए ।।१३२।। . अथ धर्मतपश्चरणरहितानां मनुष्यजन्म वृथेति प्रतिपादयतिधम्मु ण संचिउ तउ ण किउ रुक्खें चम्ममएण । खजिवि जर-उद्देहियए णरइ पडिव्बउ तेण ॥१३३॥ धर्मो न संचितः तपो न कृतं वृक्षेण चर्ममयेन । खादयित्वा जरोद्रहिकया नरके पतितव्यं तेन ।।१३३॥ आगे जो धर्मसे रहित हैं, और तपश्चरण भी नहीं करते हैं, उनका मनुष्यजन्म वृथा है, ऐसा कहते हैं-(येन) जिसने (चर्ममयेन वृक्षण) मनुष्य शरीररूपो चर्ममयी वृक्षको पाकर उससे (धर्मः न कृतः) धर्म नहीं किया, (तपो न कृतं) और तर भी नहीं किया, उसका शरीर (जरोद्रे हिकया खादयित्वा) बुढ़ापारूपी दीमकके कीड़ेकर खाया जायगा, फिर (तेन) उसको मरणकर (नरके) नरकमें (पतितव्यं) पड़ना पड़ेगा। भावार्थ-गृहस्थ अवस्थामें जिसने सम्यक्त्वपूर्वक दान, शील, पूजा, उपवासादिरूप गृहस्थका धर्म नहीं किया, दर्शनप्रतिमा, व्रतप्रतिमा आदि ग्यारह प्रतिमागे भेदरूप श्रावकका धर्म नहीं धारण किया, तथा मुनि होकर सब पदार्थोकी इच्छाका निरोध कर अनशन वगैर: बारह प्रकारका तप नहीं किया, तपश्चरणके बलसे शुद्धात्मा के ध्यान में ठहरकर निरन्तर भावना नहीं की, मनुष्यके शरीररूप चर्ममयो वृक्षको पाकर यतीका व श्रावकका धर्म नहीं किया, उनका शरीर वृद्धावस्थारूपी दीमकके कोई खावेंगे, फिर वह नरक में जावेगा । इसलिये गृहस्थको तो यह योग्य है, कि निश्चयरत्नत्रयकी श्रद्धाकर निजस्वरूप उपादेय जान, व्यवहार रत्नत्रयरूप श्रावकका धम पालना । और यतीको यह योग्य है, कि निश्चयरत्नत्रयमें ठहरकर व्यवहार रत्नत्रया बलसे महातप करना । अगर यतीका व श्रावकका धर्म नहीं बना, अणुव्रत नहीं पाल, तो महा दुर्लभ मनुष्य-देहका पाना निष्फल है, उससे कुछ फायदा नहीं ||१३३।। अथ हे जीव जिनेश्वरपदे परमभक्तिं कुर्विति शिक्षा ददाति अरि जिय जिगा-पड़ भत्ति करि सुहि सजणु अवहरि । तिं वप्पण वि कन्जु णवि जो पाडइ संसारि ॥१३॥
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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