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________________ परमात्मप्रकाश [ २२६ _. अरे जीव जिनपदे भक्ति कुरु सुखं स्वजनं अपहर। । तेन पित्रापि कायं नैव य: पातयति संसारे ।।१३४।। __ आगे श्रीगुरु शिष्यको यह शिक्षा देते हैं, कि तू मुनिराजके चरणारविन्दोंकी परमभक्ति कर, ( अरे जीव) हे भव्य जीव, तू (जिनपदे ) जिनपदमें (भक्ति कुरु ) भक्तिकर, और जिनेश्वरके कहे हुए जिनधर्म में प्रीति कर, (सुखे) संसार सुखके निमित्तकारण (स्वजनं) जो अपने कुटुम्बके जन उनको (अपहर) त्याग, अन्यकी तो बात क्या है ? (तेन पित्रापि नैव कार्य) उस महास्नेहरूप पितासे भी कुछ काम नहीं है, (यः) जो (संसारे) संसार-समुद्र में इस जीवको (पातयति) पटक देवे । भावार्थ-हे आत्माराम, अनादिकालसे दुर्लभ जो वीतराग सर्वज्ञका कहा हुआ राग-द्वष मोहरहित शुद्धोपयोगरूप निश्चयधर्म और शुभोपयोगरूप व्यवहारधर्म, उनमें भी छह आवश्यकरूप यतीका धर्म, तथा दान पूजादि श्रावकका धर्म, यह शुभाचाररूप दो प्रकार धर्म उसमें प्रीति कर । इस धर्मसे विमुख जो अपने कुलका मनुष्य उसे छोड़, और इस धर्मके सन्मुख जो पर कुटुम्बका भी मनुष्य ही उससे प्रीति कर । तात्पर्य यह है, कि य जीव जैसे विषय-सुखसे प्रीति करता है, वैसे जो जिनधर्मसे करे तो संसारमें नहीं भटके । ऐसा दूसरी जगह भी कहा है, कि जैसे विषयों के कारणों में यह जीव बारम्बार प्रेम करता है, वैसे जो जिनधर्म में करे, तो संसारमें भ्रमण न करे ॥१३४॥ अथ येन चित्तशुद्धिं कृत्वा तपश्चरणं न कृतं तेनात्मा वञ्चित इत्यभिप्रायं मनसि धृवा सूत्रमिदं प्रतिपादयति जेण ण चिण्णउ तव-यरणु णिम्मलु चित्तु करेवि । अप्पा वंचिउ तेण पर माणुस-जम्मु लहेवि ॥१३५।। येन न चीणं तपश्चरणं निर्मलं चित्त कृत्वा । आत्मा वञ्चितः तेन परं मनुष्यजन्म लब्ध्वा ।।१३५।। आगे जिसने चित्तकी शुद्धता करके तपश्चरण नहीं किया, उसने अपना आत्मा ठग लिया, यह अभिप्राय मनमें रखकर व्याख्यान करते हैं-(येन) जिस जीवने (तप. श्चरणं) वाह्याभ्यन्तर तप (न चीण) नहीं किया, (निर्मलं चित्त) महा निर्मल चित्त
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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