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________________ परमात्मप्रकाश [ २२७ जीवोंको नित्य जान । निर्मल ज्ञान दर्शनस्वभाव परब्रह्म (शुद्ध जीवतत्त्व) उससे भिन्न जो पांच इन्द्रियोंका विषयवन वह क्षणभंगुर जानो ।।१३१।। अथ पूर्वोक्तमध्र वत्वं ज्ञात्वा धनयोवनयोस्तृष्णा न कर्तव्येति कथयति जे दिवा सूरुग्गमणि ते अत्थवणि ण दिटू । तें कारणिं वड धम्मु करि धणि जोव्वणि कड ति? ॥१३२॥ ये दृष्टाः सूर्योद्गमने ते अस्त मने न दृष्टाः । तेन कारणेन वत्स धर्म कुरु धने यौवने का तृष्णा ।।१३२।। आगे पूर्वोक्त विषय-सामग्रीको अनित्य जानकर धन यौवन और विषयों में तृष्णा नहीं करनी चाहिये, ऐसा कहते हैं-(वत्स) हे शिष्य, (ये) जो कुछ पदार्थ (सूर्योदगमने) सूर्य के उदय होनेपर (दृष्टाः ) देखे थे, (ते) वे (अस्तमने) सूर्य के अस्त होने के समय (न दण्टाः ) नहीं देखे जाते, नष्ट हो जाते हैं (तेन कारणेन) इस कारण त (धर्म) धर्मको (कुरु) पालन कर (धने यौवने) धन और यौवन अवस्था में (का तरणा) _क्या तृष्णा कर रहा है । भावार्थ-धन, धान्य, मनुष्य, पशु, आदिक पदार्थ जो सवेरेके समय देखो वे सांझके समयमें नहीं दीखते, नष्ट हो जाते हैं, ऐसा जगत्का ठाठ विनाशीक जान. कर इन पदार्थों की तृष्णा छोड़, और श्रावकका तथा यतीका धर्म स्वीकार कर, धन यौवन में क्या तृष्णा कर रहा है। ये तो जलके बवूलेके समान क्षणभंगुर हैं। यहां कोई प्रश्न करे, कि गृहस्थी धनकी तृष्णा न करे तो क्या करे ? उसका उत्तर-निश्चय व्यवहार रत्नत्रयके आराधक जो यति उनको भर तरह गृहस्थको सेवा करनी चाहिये, चार प्रकारका दान देना, धर्मकी इच्छा रखनी. धनको इच्छा नहीं करनी । जो किसी दिन प्रत्याख्यानकी चौकड़ीके उदयसे धावक व्रतमें भी रहे, तो देव पूजा, गुरुकी सेवा, स्वाध्याय, दान, शील, उपवासादि अात. रूप धर्म करे, और जो बड़ी शक्ति होवे, तो सब परिग्रह त्यागकर यतीके व्रत धारण करके निर्विकल्प परमसमाधिमें रहे। यतीको सर्वथा धनका त्याग और गृहस्थको धनका प्रमाण करना योग्य है । विवेकी गृहस्थ धनकी तृष्णा न करें। धन योवन असार हैं, यौवन अवस्था में विषय तृप्णा न करें, विषयका राग छोड़कर विपनों ..
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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