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________________ २२४ ] परमात्मप्रकाश जोइय सयलु वि कारिमउ णिक्कारिमउ ग कोइ जीविं जंतिं कुडि ण गय इहु पडिछंदा जोइ ॥ १२६॥ योगिन् सकलमपि कृत्रिमं निःकृत्रिमं न किमपि । जीवेन यातेन देहो न गतः इमं दृष्टान्तं पश्य ।। १२६ ॥ आगे फिर भी अनित्यानुप्रेक्षाका व्याख्यान करते हैं - ( योगिन् ) हे योगो, ( सकलमपि ) सभी ( कृत्रिमं ) विनश्वर हैं. (निः कृत्रिमं ) अकृत्रिम ( किमपि ) कोई नो वस्तु (न) नही है, ( जीवेन याता) जीवके जानेपर उसके साथ ( देहो न गतः ) शरीर भी नहीं जाता, (इमं दृष्टांतं ) इस दृष्टान्तको ( पश्य ) प्रत्यक्ष देखो । भावार्थ - हे योगी, टंकोत्कीर्ण (अघटित घाट - विना टांकीका गढ़ा ) अमृतक पुरुषाकार आत्मा केवल ज्ञायक स्वभाव अकृत्रिम वीतराग परमानन्दस्वरूप, उससे जुड़े जो मन वचन कायके व्यापार उनको आदि ले सभी कार्य पदार्थ विनश्वर हैं । इस संसारमें देहादि समस्त सामग्री अविनाशी नहीं है, जैसा शुद्ध बुद्ध परमात्मा अकृत्रिम है, वैसा देहादिमें से कोई भी नहीं है, सब क्षणभंगुर हैं । शुद्धात्मतत्त्वकी भावनासे रहिन जो मिथ्यात्व विषयकषाय हैं उनसे आसक्त होके जीवने जो कर्म उपार्जन किये हैं, उन कर्मोंसे जब यह जीव परभवमें गमन करता है, तब शरीर भी साथ नहीं जाता। इसलिये इस लोक में इन देहादिक सबको विनश्वर जानकर देहादिककी ममता छोड़ना चाहिये, और सकल विभाव रहित निज शुद्धात्म पदार्थ की भावना करनी चाहिये ।। १२६ ।। अथ तपोधनं प्रत्य चानुप्रक्षां प्रतिपादयति देउलु देउ वि सत्थु गुरु तित्थु वि उवि कव्वु । बच्छु जु दीसह कुसुमियउ इ धणु होस सव्बु || १३०|| देवकुलं देवोऽपि शास्त्रं गुरुः तीर्थमपि वेदोऽपि काव्यम् । वृक्ष: यदु दृश्यते कुसुमितं इन्वनं भविष्यति सर्वम् ॥ १३० ॥ आगे मुनिराजोंको देवल आदि सभी सामग्री अनित्य दिखलाते हुए अनुवा प्रक्षाको कहते हैं- (देवकुलं ) अरहन्तदेवकी प्रतिमाका स्थान जिनालय (देवोऽपि ) श्रीजिनेन्द्रदेव (शास्त्रं) जैनशास्त्र (गुरुः ) दीक्षा देनेवाले गुरु (तोर्थमपि ) गंगार सागरमे तैरनेके कारण स्थान सम्मेदशिखर आदि (दोऽपि )
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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