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________________ परमात्मप्रकाश [ २२३ हो जावे, सो जीव अविनाशो है । जीव इस देहको छोड़कर परभवको जाता है, तब देह नहीं जाती है। इसलिये जीव और देहमें भेद भी है। यद्यपि निश्चयनयकर भेद है, तो भी व्यवहारनयकर प्राणों के चले जानेसे जीव दु:खी होता है, सो जीवको दुःखी करना यही हिंसा है, और हिंसासे पापका बन्ध होता है। निश्चयनयकर जीवका घात नहीं होता, यह तूने कहा, वह सत्य है, परन्तु व्यवहारनयकर प्राणवियोगरूप हिंसा है ही. और व्यवहारनयकर ही पाप है, और पापका फल नरकादिके दुःख हैं, वे भी व्यवहारनयकर ही हैं। यदि तुझे नरकके दुःख अच्छे लगते हैं, तो हिंसा कर, और नरक का भय है, तो हिंसा मत कर । ऐसे व्याख्यानसे अज्ञानी जीवोंका संशय मेटा । अथ मोक्षमार्गे रति कुर्विति शिक्षा ददाति मूढा सयलु वि कारिमउ भुल्लउ मं तुस कंडि। सिव-पहि णिम्मलि करहि रइ घरु परियणु लहु छंडि ॥१२८॥ मूढ सकलमपि कृत्रिमं भ्रान्तः मा तुषं कण्डय । शिवपथे निमंले कुरु रति गृहं परिजनं लघु त्यज ।।१२८।। आगे श्रीगुरु यह शिक्षा देते हैं. कि तू मोक्ष-मार्गमें प्रीति कर-(मूढ) हे मूढ जीव, (सकलमपि) शुद्धात्माके सिवाय अन्य सब विषयादिक (कृत्रिम) विनाशवाले हैं, तू (भ्रांतः) भ्रम (भूल) से (तुषंमा कंडय) भूसे का खण्डन मत कर । तू (निर्मले) परमपवित्र (शिवपथे) मोक्ष-मागमें (रति) प्रीति (कुरु) कर, (गृहं परिजनं) और मोक्ष-मार्गका उद्यमी होके घर परिवार आदिको (लघु) शीघ्र ही (त्यज) छोड़। . भावार्थ-हे मूढ, शुद्धात्मस्वरूपके सिवाय अन्य सब पंचेन्द्री विपयरूप पदार्थ नाशवान हैं, तू भ्रमसे भूला हुआ असार भूसे के कूटनेकी तरहकी कार्य न कर, इस सामग्रीको विनाशीक जानकर शीघ्र ही मोक्ष-मार्गके घातक घर परिवार आदिकको छोड़कर, मोक्ष-मार्गका उद्यमी होके, ज्ञानदर्शनस्वभावको रखनेवाले शुद्धात्माकी प्राप्ति का उपाय जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यकचारित्ररूप मोक्षका मार्ग उसमें प्रीतिकर । जो मोक्ष-मार्ग रागादिकसे रहित होनेसे महा निर्मल है ।।१२८।। अथ पुनरप्पध्रु वानुप्रक्षा प्रतिपादयति
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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