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________________ प्रात्ययिकी क्रिया - नये-नय अधिकरणों का उत्पन्न करना प्रात्यविकीक्रिया है । प्रादुष्कार-दीप-यह दाप सक्रमण और प्रकाशन क भेट से दो प्रकार काह । साधु के आ जाने पर आहार सामग्री एक स्थान से दूसर स्थान पर ल जाना सक्रमण नाम का प्रादुष्कार-दाप हे तथा आहार के स्थान पर प्रकाश कम हान पर किवाड खोलना या दीपक आदि जलाना प्रकाशन नाम का प्रादुष्कार- दीप है। प्रादोपिकी-क्रिया - क्राध के आवंश से होने वाली प्रादापिकी क्रिया है । प्राप्ति ऋद्धि-जिस ऋद्धि के प्रभाव स साधु भूमि पर स्थित रहकर अलिक अग्र भाग स सूय, चंद्र को, मरुशिखर की या अन्य वस्तुओ का स्पश करन में समय होता है वह प्राप्ति ऋद्धि है। प्राभृत-दीप-दिन, पक्ष, महीना, वप या ऋतु आदि को बदलकर आहार देना प्राभृत-दीप है । अथवा प्रात का मध्याह्न में ओर मध्याह्न का प्रात कालम, एसा समय बदलकर साधु को आहार देना प्रामृत - दोष हे । प्रामृष्य - साधु को आहार कराने के लिए दूसरे से आहार सामग्री उधार लेना प्रामृष्य नामक दोष है । प्रायश्चित - प्रमादजन्य दीपों का परिहार करना प्रायश्चित नाम का तप हे। व्रता में दोप लगने पर साधु अपने दोषों का निराकरण करने के लिए जो उपवास आदि अनुष्ठान करते हे वह प्रायश्चित कहलाता है । यह साधु का एक मूलगुण हे । प्रायोग्य-लब्धि - सर्व कर्मों को उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट अनुभाग 172 / जनदर्शन पारिभाषिक कोश
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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