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________________ को घात करके अन्त कोडाकोडी स्थिति मे और द्विस्थानीय अनुभाग मे स्थित कर देना प्रायोग्य-लब्धि कहलाती है। प्रायोपगमन-जीवन पर्यन्त के लिए आहार का त्याग करके और समस्त सेवा-वेय्यावृत्ति से रहित होकर जो समाधि ली जाती है उसे प्रयोपगमन नामक सल्लेखना कहा गया है। इस प्रकार की सल्लेखना उत्तम सहनन के धारी महावलशाली और शूरवीर तपस्वी साधु ही धारण कर सकते है। पचमकाल मे यह सभव नहीं है। प्रारभ-क्रिया-छेदना-भेदना, रचना करना आदि क्रियाओमे स्वय तत्पर रहना तथा दूसरे के द्वारा किये जाने पर हर्षित होना प्रारभ-क्रिया है। प्रासुक-जल, वनस्पति आदि को विशेष-प्रक्रिया के द्वारा सूक्ष्म जीवो के सचार से रहित कर लेना प्रासुक करना कहलाता है। जिसमें से एकेन्द्रिय आदि जीव निकल जाते हे वह प्रासुक द्रव्य माना जाता है। स्वच्छ वस्त्र से छाना गया जल दो प्रहर तक प्रासुक रहता है तथा उबला हुआ जल चौबीस घंटे तक प्रासुक रहता है। प्रासुक-मार्ग-जिस मार्ग से आवागमन हो रहा है, जो सूर्य की किरणो से तप चुका है या जहा खेती के लिए हल चलाया गया है वह प्रासुक-मार्ग हे। साधु-जन प्रासुक-मार्ग से ही गमन करते है। प्रेमानुराग-साधर्मी भाई को प्रेमवश बार-बार उपदेश देकर सन्मार्ग पर स्थित रखने का भाव होना प्रेमानुराग कहलाता है। प्रोषधोपवास-1 प्रोषध का अर्थ पर्व हे । पर्व के दिन उपवास करना प्रोषधोपवास कहलाता है। 2 एक वार दिन मे भोजन करना प्रोषध जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 178
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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