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________________ मात्र निगोदिया जीव रहते है। अध्यधिदोष-आहार के लिए साधु को आते देखकर अपनी भोजन-सामग्री मे तुरत अधिक जल और चावलादि मिलाकर फिर पकाना और साधु को देना अध्यधिदोष है। अध्यात्म-1 समस्त रागादि विकल्पो को छोड़कर अपनी निर्मल आत्मा मे आचरण करना अध्यात्म है। 2 जिस ग्रथ मे अभेद रत्नत्रय की मुख्यता से आत्मस्वरूप का व्याख्यान किया जाता है उसे अध्यात्म शास्त्र कहते हैं। अध्रुव अवग्रह-1 जो यथार्थ ग्रहण निरतर नहीं होता वह अध्रुव-अवग्रह है। अर्थात् जैसा प्रथम समय मे शब्द आदि का ज्ञान हुआ था आगे वैसा ही नहीं रह पाता, कम या अधिक होता है वह अध्रुव-अवग्रह है। 2 विजली, दीपक की लौ आदि अध्रुव या अस्थिर वस्तु का ज्ञान होना अध्रुव-अवग्रह है। अनगार-अगार का अर्थ गृह या घर है। अत घर-गृहस्थी के ममत्व से रहित निष्परिग्रही साधु को अनगार कहते है। अनध्यवसाय-गमन करते हुए मनुष्य को जैसे पैरो मे तृण आदि का स्पर्श होने पर स्पष्ट मालूम नहीं पड़ता कि 'क्या लगा' अथवा जैसे जगल मे दिशा भूल जाते है उसी प्रकार परस्पर सापेक्ष नयो के अनुसार वस्तु को नहीं जान पाना अनध्यवसाय या विमोह कहलाता है। अनन्त-निरतर व्यय होने पर भी जो राशि कभी समाप्त न हो उसे अनन्त कहते है। जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 9
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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