SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 18
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनन्तकायिक- एक ही साधारण (कॉमन) शरीर में जो अनन्त जीव निवास करत हे उन्हें अनन्तकायिक- जीव कहते हैं। इन सभी जीवो का जन्म, मरण, आहार ओर श्वासोच्छ्वास आदि सभी क्रियाए एक साथ होती है। मूली, गाजर, अदरक आदि वनस्पतिया अनन्तकायिक होती है । (देखिए निगोद) अनन्त चतुष्टय - चार घातिया कर्मों के क्षय होने पर जो अनन्त दर्शन, अनन्त - ज्ञान, अनन्त सुख ओर अनन्त - वीर्य रूप चार गुण आत्मा मे प्रकट होते हे उन्हे अनन्त चतुष्टय कहते है । अनन्त - ज्ञान - ज्ञानावरण-कर्म के क्षय होने से जो सकल चराचर को जानने वाला ज्ञान आत्मा में प्रकट होता हे उसे अनन्त ज्ञान या केवलज्ञान कहते है । अनन्त-दर्शन-दर्शनावरणीय कर्म के क्षय से जो सकल चराचर का सामान्य प्रतिभास रूप दर्शन गुण आत्मा में प्रकट होता है वह अनन्त-दर्शन या कंवलदर्शन हे । अनन्तनाथ - चोदहवे तीर्थकर । इक्ष्वाकु वंश में राजा सिहसेन और रानी जयश्यामा के यहा उत्पन्न हुए। इनकी आयु तीस लाख वर्ष और ऊचाई पचास धनुप थी । समस्त शुभ लक्षणो से युक्त इनका शरीर स्वर्ण के समान आभावान था। राज्य करते हुए पद्रह लाख वर्ष बीत जाने पर उल्कापात देखकर ये वेराग्य को प्राप्त हुए और अपने पुत्र को राज्य देकर गृहत्याग कर दीक्षित हो गये। दो वर्ष की तपस्या के उपरान्त इन्हें केवलज्ञान हुआ । इनके समवसरण में पचास गणधर छ्यासठ हजार मुनि, एक लाख आठ हजार आयिकाए, दो लाख श्रावक एव 10 / जेनदर्शन पारिभाषिक कोश
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy