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________________ अधर्म-द्रव्य-जो जीव और पुद्गल को ठहरने में सहायक होता है उसे अधर्म-द्रव्य कहते है । यह द्रव्य समूचे लोक में व्याप्त है। यह अचेतन और असपी है। इसका काय वृक्ष की छाया की तरह है जो राहगीर को ठहरने में सहायक है। अप.कर्म-यदि साधु मन वचन काय से अपने लिए स्वय आहार वनाए, बनवाए या वनाए गए आहार का समर्थन करें और ऐसा आहार ग्रहण कर ले तो यह अघ कर्म नाम का दीप है। अप प्रवृत्तकरण-जहा नीचे के समयवर्ती किसी जीव के परिणाम ऊपर के समयवर्ती किसी जीव के परिणामो के समान होते है वहा के परिणामी का नाम अध प्रवृत्तकरण है। अधिकरण-अधिष्ठान या आधार को अधिकरण कहते है। अधिगमज-सम्यग्दर्शन-वाह्य उपदेशपूर्वक जो सम्यग्दर्शन उत्पन्न होता है वह अधिगमज-सम्यग्दशन है। अपोलोक-समूचा लोक तीन भागों में विभक्त हे। लोक का निचला भाग अधोलोक कहलाता है। इसका आकार वेत्रासन के समान है ओर विस्तार सात राजू है। अधोलोक मे नीचे-नीचे क्रमश रत्नप्रभा, शर्करा-प्रभा, वालुका-प्रभा, पकप्रभा, धूम-प्रभा, तम-प्रभा और महातम प्रभा-ये सात पृथिविया है। प्रथम पृथिवी के तीन भाग हे-खर, पक ओर अव्वल । खरभाग और पकभाग मे भवनवासी तथा व्यतर देवो के आवास हैं। अब्बहल भाग से नारकी जीवो के आवास प्रारभ होते हे जो विल के रूप मे है। सातो भूमियो मे कुल चौरासी लाख विल है। इसके नीचे कलकला नामक पृथिवी हे जहा 8 / जेनदर्शन पारिभाषिक कोश
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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