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________________ ही मोक्ष प्राप्त कर लेते है। निकाचित-जीव के द्वारा वाधे गए जिस कर्म का अपकर्षण, उत्कर्षण और सक्रमण होना सभव नहीं है वह निकाचित-कर्म कहलाता है। यह कर्म आवाधाकाल पूरा होने पर उदय मे आकर अवश्य ही फल देता है। विशेषता यह है कि जिनविव के दर्शन से कर्मों का निकाचितपना नष्ट हो सकता है। निक्षिप्त-दोष-यदि साधु सचित्त जल, पृथिवी, हरे पत्ते आदि के ऊपर रखी आहार सामग्री ग्रहण कर ले तो यह निक्षिप्त दोष है। निक्षेप-नाम स्थापना आदि के द्वारा वस्तु मे भेद करने के उपाय को निक्षेप कहते है। या जो अनिर्णीत वस्तु का निर्णय कराये उसे निक्षेप कहते है। नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-ये चार निक्षेप हैं। लोक-व्यवहार मे एक ही वस्तु के लिए नाम आदि चारो निक्षेप देखने मे आते हैं, जैसे किसी व्यक्ति का नाम सेवक हे। किसी सेवक का चित्र भी सेवक कहलाता है। जो सेवाकार्य से निवृत्त है या आगे सेवा कार्य करेगा, वह भी सेवक माना जाता है। जो वर्तमान मे सेवाकार्य कर रहा है वह भी सेवक है। निगोद-जो अनन्तो जीवो को एक निवास दे उसे निगोद कहते है। आशय यह है कि एक ही साधारण शरीर मे जहा अनन्तो जीव निवास करते है वह निगोद है। निगोद मे स्थित जीव दो प्रकार के है-नित्यनिगोद और चतुर्गति निगोद। नित्य-निगोद-जिन्होने कभी भी त्रस-पर्याय को प्राप्त नहीं किया और जो सदाकाल से निगोद मे ही है वे जीव नित्य-निगोद कहलाते हैं। 136 / जैनदर्शन पारिभाषिक कोश
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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