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________________ ज्यों था त्यों ठहराया और उन्होंने कहा कि बस, अब एक महत्वाकांक्षा और बची है--परमात्मा को पाने की। एक महत्वाकांक्षा पूरी हो गई--प्रधानमंत्री होने की! जब तक पूरी नहीं हुई थी, तब तक वही कहते थे कि यह मेरी महत्वाकांक्षा है। अब पूरी हो गई, तो अब कहते हैं--यह मेरी नियति थी। परमात्मा ने लिखा ही हआ था। यह होने ही वाला था। इसे कोई दुनिया की शक्ति रोक नहीं सकती थी। अब कहते हैं कि परमात्मा को पाना मेरी महत्वाकांक्षा है! परमात्मा को पाने की कोई महत्वाकांक्षा हो ही नहीं सकती। और जिसके मन में परमात्मा को पाने की महत्वकांक्षा है, वह कभी परमात्मा को पा न सकेगा, क्योंकि महत्वाकांक्षी मन ही तो बाधा है। तब तक महत्वाकांक्षा न गिर जाए, वासना न गिर जाए...फिर वह वासना परमात्मा को ही पाने की क्यों न हो, कुछ भेद नहीं पड़ता। धन पाना चाहो, पद पाना चाहो, परमात्मा पाना चाहो--चाह तो एक है, चाह का रंग एक है, चाह की भांति एक है। चाह दौड़ाती है, भगाती है, ठहरने नहीं देती। और जो अचाह हुआ, वह ठहरा--ज्यूं का त्यूं ठहराया! जहां कोई चाह नहीं, वहां कोई दौड़ नहीं, भाग नहीं, आपाधापी नहीं। और जो ठहरा अपने केंद्र पर, उसे मिल गया परमात्मा। परमात्मा वहीं छिपा है, कहीं बाहर नहीं। और जब मिलता है, तो पूरा मिलता है--स्मरण रखना। या तो नहीं मिला है या मिला है। आधा-आधा नहीं होता कि थोड़ा मिला, थोड़ा नहीं मिला! परमात्मा की उपलब्धि क्रांति है-- क्रमिक विकास नहीं। लेकिन जिन्होंने ध्यान नहीं जाना है, उन्होंने संस्कृति भी नहीं जानी; उन्होंने धर्म भी नहीं जाना; उन्होंने सत्य भी नहीं जाना। वे केवल सभ्यता के ही आवरणों में लिपटे हुए हैं; सभ्यता के आभूषणों को ही पहने हुए बैठे हैं। और सभ्यता के आभूषण दिखते आभूषण हैं, वस्तुतः जंजीरें हैं। सोने की सही, हीरे-जवाहरात जड़ी सही, मगर जंजीरें जंजीरें हैं। सभ्यता तो एक कारागृह बनाती है--सुंदर, सजावट से बना हुआ। लेकिन कारागृह कारागृह है, चाहे दीवारों पर कितने ही बड़े चित्रकारों के चित्र टंगे हों, और चाहे कितना ही सुंदर फर्नीचर हो, और चाहे सींखचे सोने के हों। लेकिन कुछ लोग इन कारागृहों को ही घर समझ लेते हैं। कुछ क्या, अधिकतम! मैंने सुना, एक यात्री, एक सत्य का खोजी एक धर्मशाला में ठहरा है। धर्मशाला के द्वार पर ही एक तोता टंगा है। सुंदर उसका पिंजरा है और वह तोता चिल्ला रहा है--स्वतंत्रता, स्वतंत्रता, स्वतंत्रता!...यही तो उसके भी प्राणों की पुकार थी--स्वतंत्रता, सारे बंधनों से स्वतंत्रता! इसी खोज में तो वह इस पहाड़ी स्थल पर आया था कि बैलूंगा एकांत में कि सबसे स्वतंत्र हो जाऊं। यही पुकार तोते की भी है! और तब उसे लगा ऐसे ही पिंजरे में मैं बंद हूं, ऐसे ही पिंजरे में यह बेचारा तोता बंद है। इसके भी पंख काट दिए हैं तोते के। पिंजरे में बंद कर दिया, तो पंख कट गए, इससे आकाश छिन गया। यह आकाश का पक्षी; यह आकाश का मुक्त गगनविहारी, इसे कहां सीखचों में बंद कर दिया! माना कि सींखचे सुंदर हैं। लेकिन सराय का मालिक कहीं नाराज न Page 32 of 255 http://www.oshoworld.com
SR No.009965
Book TitleJyo tha Tyo Thaharaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherOsho Rajnish
Publication Year
Total Pages255
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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