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________________ चाणक्यसूत्राणि बलवान् अधार्मिक शत्रुके हाथों में आत्मविक्रय करे या पराजय निश्चित होने पर उससे संग्राम करके मिट जाय । ऐसे समय नीतिमान् राजाका कर्तव्य है कि शत्रुसे सामयिक सन्धिके सहारे भात्मरक्षा करके शक्तिसंचय करने में लगा रहे। यही उसकी सन्धिका उद्देश्य रहना चाहिये । (सबल धार्मिक राजाकी सन्धिनीति ) अधिक सूत्र-- हीयमानेन न सन्धिं कुर्वीत । वर्धिष्णु नीतिमान् धार्मिक राजाका कल्याण इसी में है कि वह अपनी विजय निश्चित होने तथा नीतिहीन शत्रुकी हायमान अवस्थाका पता चल जानपर उसके सन्धिप्रस्तावको स्वीकार न कर। विवरण-- नीतिमान् बलवान् राजाके लिये यह कदापि उचित न होगा कि वह अधार्मिक निर्बल शत्रुको संग्रामभूमिमें आखडा पाकर भी उसे न मिटाकर उसकी मीठी बातोंके चक्कर में लाकर उससे सन्धि करके उसे भविष्य में शक्तिमान् बनकर शत्रुता करते रहने के लिये जीवित रहनेद। शत्रुको उसकी प्रस्तावित सन्धिसे जीवित रहनेका अवसर देदेना राजनैतिक मौतरूपी भयंकर प्रमाद है । (सन्धिका कारण) तेजो हि सन्धानहेतुस्तदर्थानाम् ॥ ५३॥ सन्धानार्थी दामेस दोनोंकी तेजस्विता प्रभावशालिता तथा प्रताप हा साचो सान्धका कारण होता है। विवरण---- कोष तथा दण्डज प्रताप तेज कहाता है । धनभंडार कोष कहाता है। दमन तथा सेना ये दो दण्डके भेद हैं। अधिक्षपावमानादः प्रयुक्तस्य परण यत् । प्राणात्ययेऽप्रसहनं तत्तेजः समुदाहृतम् ॥ (भरत )
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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