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________________ सन्धिका कारण ५१ दूसरेके किये अधिक्षेप तथा अपमानको न सहना तथा इस असहनमें प्राणोत्सर्ग तक करनेको प्रस्तुत होजाना 'तेज' कहाता है। "मुहूर्त ज्वलितं श्रेयो न च धूमायितं चिरम् ।” चिरकाल तक धूयेके साथ निष्प्रभ होकर पछता पछताकर सुलगते रहनेकी अपेक्षा ज्वालामालाके साथ एक क्षणभर भी जीलेना शोभाकी बात है। सूत्र कहना चाहता है कि जब कोई दूसरे पक्षमें अधिक तेज देखे और सन्धि करना आवश्यक माने तब अपने सम्मानको सुरक्षित रखकर हीयमान होते हुए भी शत्रुको अपनी हीयमानता न दिखाकर, बन्दरघुडकी दिखाते हुए ही उससे सन्धि करे । सन्धि करने में अपने सम्मान और अस्तित्वको सुरक्षित रखना अपना विशेष कर्तव्य माने । ध्यान रहे कि सम्मान सुरक्षित नहीं होगा, तो सन्धि सन्धि न होकर भात्मसमर्पण होजायेगा। सन्धिके समय हीयमानका कर्तव्य होता है कि वह सन्धिप्रस्तावमें अपनेको मिटाकर सन्धि न करे। किन्तु निर्विष होनेपर भी फुकार मारना न त्यागनेवाले सांपकी भांति अपने तेजको अक्षुण्ण रखकर सन्धि करे । पाठान्तर-- तेजो हि सन्धानहेतुस्तदर्थिनाम् । नातप्तलोहो लोहेन सन्धीयते ।। ५४ ॥ जैसे बिना तपे लोहेकी बिना तप लोहेस सन्धि नहीं होती, इसी प्रकार दोनों पक्षामें तेजस्विता न हो तो सन्धि नहीं होती। विवरण- यह तो ठीक है कि दोनोंमेंसे एकके प्रतापका अधिक होना अनिवार्य है तो भी उनमें सन्धि होना तब ही संभव होगा, जब दीयमान राजा अपने पौरुष ढोले न छोडचुका होगा। यदि वह पौरुष ढीले छोड देगा तो अपना स्वतंत्र अस्तित्व ही खो बैठेगा। सन्धि तब ही होसकेगी जब निस्तेज राजा भी शत्रुसे संधिप्रस्तावमें अपनी तेजस्विताको अक्षुण्ण बनाये रखकर शत्रपक्षपर सन्धिका दबाव डाल रहा होगा । बात यह है कि शत्रपक्ष अधिक बलवान होनेपर भी युद्ध के अनिष्टकारी परिणामोंसे बचना चाहा करता है। ऐसी स्थितिमें नीतिमान धार्मिक राजा अधार्मिक शत्रुपर
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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