SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निवल राजाकी सन्धिनीति ४९ शत्रु मित्रपरिवयके निम्न कारण प्रत्यक्ष उपस्थित होजाते हैं । जो मनुष्य मित्रकी विपत्तिको अपनी विपत्ति मानकर, मित्रके चित्तको स्थिर तथा दृढ बनाये रखनेके लिये स्वयं हृढताके साथ उसका साथ देकर अपना कर्तव्य पूरा करता है वही सच्चा मित्र है। सच्चा मित्र संपत्ति के दिनों में मित्रकी संपत्तिको अटल बनाये रखता तथा विपत्तिके दिनों में उसकी विपलको हटाये रखनेके उद्देश्य से उसके सच्चे हितमें आत्मदान कर देता है। हित में आरमदान करनेवाला मित्र ही सच्चा मित्र है । जो व्यक्ति कृत्रिम मित्र बनकर मित्रके अच्छे दिनों में तो उसका धनशोषण तथा अपना स्वार्थीद्वार करता है और मित्र के दुर्दिनोंमें आंखें फेर लेता, शत्रुसे मेलजोल रखता तथा मित्रकी निन्दा करता है, वह वास्तव में शत्रु हो है । जो विश्वासपात्र बनकर विश्वासघात करता, सब बातों में मतभेद रखता, सदा धनशोषण करता, स्वयं कभी कुछ नहीं देता, सदा अपना ही गीत गाता, अपना ही रोना रोता, शत्रु पैदा करता, अपने ही संबन्धको प्रधानता तथा महत्व देकर रहता और समय पात ही पैशुन्य करता है, उसे कभी मित्र न मानना चाहिये । ( निर्बल धार्मिक राजाकी संधिनीति ) हीयमानः सन्धिं कुर्वति ।। ५२ ।। निर्बल नीतिमान् राजाका तात्कालिक कल्याण इसी में है कि वह अधिक शक्तिशाली अन्यायी सशक्त राज्यक साथ सन्धिकी नीतिको अपनाकर आत्मरक्षा करे और उपस्थित संग्रामको टालदे । " विवरण -- वह अपनी हीयमान अवस्थाका शत्रको पता चलने से पहले 'ही अपनी ओर से सन्धिका प्रस्ताव करके आत्मरक्षाका प्रबन्ध करे । वह युद्ध स्थगित करने के अवसरका अपनी शक्तिवृद्धि में उपयोग करे । नीतिमान् राजा के लिये ये दोनों ही बातें अभीष्ट नहीं हैं कि वह सन्धिके द्वारा अपने से ४
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy