SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 652
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनार्यवादोंकी आलोचना कुंजी मानने वाले क्रान्तदर्शी विद्वानों में से था। वह मनुष्य की भोगाकांक्षाको खुलकर खेलने देने में समाजका अकल्याण मानता था। वह मनुष्यका कल्याण इप बातमें देखता था कि मानवकी भोगाकांक्षाका समाज हितमें उपयोग किया जाय । वह मनुष्य की भोगाकांक्षाको समाजको समाजका अहित करनेकी स्वतंत्रता देनेको किसी भी रूपमें प्रस्तुत नहीं था । वह मनुष्यकी व्यक्ति. गत भोगाकांक्षाको समाज कल्याणमें विलीन कर देनेवाली या उसे ( व्यक्त गत भोगेच्छाको ) समाज कल्याणका अविरोध बना लेनेवाली व्यक्तिगत और समाज दोनोंहीका कल्याण कर सकनेवालो भात्यन्तिक दुःखनिवृत्ति में हो मनुष्यका परमार्थ पा लेना या अखण्डशान्ति मिल जाना समझता था। इसके विपरीत अनार्य साम्राज्यवादों तथा अनार्य राजनैतिक पार्टियोने सिक. नरवाला वही भोगवाद अपना रक्खा है जो जड़देहकी भोगेच्छाका दास है और इसीसे पराये रमका प्यासा बने विना नहीं रहा जा सकता। माधु. निक मनार्य साम्राज्यवाद सिकन्दरवाले साम्राज्यवादका ही भौतिक विज्ञानों तथा नृशंस करताओंसे समुपबंहित आधुनिक संस्करण मात्र है । माम्यवादी या समाजवादी कहानेवाले कुछ उन विद्वान् नामधारियोंने जो अपने आपको पाश्चात्य पाम्राज्यवादका विरोधी उद्घोषित करते हैं, धनोपार्जन तथा धनभोगमें सार्वजनिक ममानाधिकारका काल्पनिक (अन्यावहारिक ) सिद्धान्त पैदा करके उलझन पैदा करती है। परन्तु इन लोगोंने भोगाकांक्षा समाजघातक दूषणका आद्योपान्त विचार नहीं किया। मोगाका. का यही प्रधान दूषण है कि वह कभी भी तप्त होना नहीं जानती। भोगेच्छु मानव भोगमें अपमर्थ तो हो सकता है परन्तु तृप्त कभी नहीं हो सकता । भोग और अतप्तिका नित्य साथ है मनुष्य की अतप्ति ही अत्याचारिणी राक्षप्ती है । अतृप्ति समाजका भयंकर शत्रु है । भोगेच्छाने संसारमें आजतक कभी भी तृप्ति, उदारता और मानवताका मुंह नहीं देखा । क्योंकि भोगाकांक्षा रूपी भाग सदा ही अतृप्त रहने वाली भाग और मनुष्यको पर. रक्तपिपासु अनुदार पशु बनाकर रखनेवाली दुष्ट अभिलाषा है इसलिये ४० ( चाणक्य.)
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy