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________________ ४५० चाणक्यसूत्राणि संचितं कृतुषु नोपयुज्यते प्रार्थितं गुणवते न दीयते । तत्कदर्थं परिगतं धनं चोरपार्थिवगृहेषु भुज्यते ॥ अनुचित उपायोंसे उपार्जित कृपणका धन न तो किसी शुभकर्ममें व्यय होता है और न किसी गुणीके अभाव अभियोग पूरा करनेमें काम आता है । वह या तो चोरके या राजाके घर खाया जाता है । निम्बफलं काकैर्भुज्यते ॥ ४९७ ॥ जैसे नीमका निन्दित कटु फल कौवोंके ही काम आता है इसी प्रकार अशिष्ट उपायासे उपार्जित धन चरित्रहीन लोगोंके ही निन्दित भोगों में काम आया करता है । इसलिये मनुष्य उचित उपायोंसे धनोपार्जन करे जिससे जीवन-यात्रा भी हो और मनका उत्कर्ष भी हो। यात्रा-मात्र- प्रसिद्धयर्थ स्वैः कर्मभिरगर्हितैः । अक्लेशेन शरीरस्य कुर्वीत धनसंचयम् ॥ ( मनु ) मनुष्य केवल जीवन-यात्रा चलाने योग्य, सो भी अपने अनिन्दित शुभ कर्मोसे, शरीरको संकट में डाले बिना धनसंचय करे । ( पापी धन सज्जनके काम नहीं आता ) नाम्भोधिस्तृष्णामपोहति ।। ४९८ ।। जैसे समुद्रका खारा पानी किसी भी प्यासेकी प्यास बुझा नेके काम नहीं आता. इसीप्रकार अशिष्ट उपायोंसे उपार्जित धन किसी भी अच्छे काममें अर्थात् किसी भी सच्चे अधिकारीकी कामना पूरी करने के काम नहीं आ सकता । ( बुरे अच्छे कामोंमें धनव्यय नहीं कर सकते ) बालुका अपि स्वगुणमाश्रयन्ते ॥। ४९९ ।। जैसे बालुका अपने रूक्ष कर्कश स्वभावको ही पकड़े रहती हैं, इसी प्रकार कोई भी असत् मनुष्य अपना स्वभाव नहीं छोडत
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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