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________________ भले बुरोंसे हिलमिलकर नहीं रहते ४५१ और अपने गर्हित उपायोंसे उपार्जित धनको सत्यार्थ सदुपयोग करनेको उद्यत नहीं होता। विवरण- किसीसे स्वभाव विरुद्ध पाशा नहीं की जा सकती। अभद्र पुरुष अपने धनका सदुपयोग कर दे ऐसी आशा करना बालुकासे तेल पाने जैसी बन्ध्या इच्छा है। ( भले बुरोंसे हिलमिल कर नहीं रहते ) सन्तोऽसत्सु न रमन्ते ॥ ५०० ।। भद्र पुरुष अभद्र पुरुषोंके साथ हिलमिल कर नहीं रहा करत। विवरण- भद्र पुरुष सद्र लोगों के ही साथ संग करते हैं। मनुष्य समाजजीवी प्राणी है । सत् और असत् दो प्रकारका मनुष्य-समाज होता है। जिसके जैसे साथी होते हैं. उसका स्वभाव वैसा ही होता है। जिसका जैसा स्वभाव होता है उसके साथी भी वैसे ही होते हैं । विपरीत स्वभाव. वाले परस्पर मिलकर नहीं बैठा करते । पाठान्तर- न सतां मूर्खषु रतिः । न हंसाः प्रेतवने रमन्ते ।। ५०१ ।। जैसे हंस श्मशान में नहीं रमते, इसी प्रकार गुणी लोग अयोग्योके संगमें रहना स्वीकार नहीं करते। विवरण- गुणी लोग एकान्ता अज्ञात जीवन बिता देना तो स्वीकार कर लेते हैं परन्तु बुरी संगतमें रहना कभी स्वीकार नहीं करते। कुसुमस्तबकस्येव द्व वृत्ती तु मनस्विनः । मूनि वा सर्वलोकस्य विशीर्यत वनऽथवा ॥ मनस्वी लोग वनमें खिले कुसुम- स्तबक के समान या तो लोगों के शिरोधार्य होकर रहते हैं या वन में पड-पडे सूख जाते हैं।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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