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________________ पापीके धनका दुरुपयोग ४४९ विवरण- जब अपनी अधिकृत वस्तु अपने प्रमाद या असामर्थ्य से दूसरेके अधिकारमें चली जाय और उसके पुनरुद्धारका कोई उपाय अपने पास शेष न रहे, तब मनुष्य यह जानकर उस संबन्धी विचारके प्रवाहको शेक दे कि अब मेरा इस संबन्धमें कोई कर्तव्य शेष नहीं रहा। बात यह है कि कर्तव्य बहिभूत चिन्ता दुश्चिन्ता होती है । दुश्चिन्ता हो भशान्ति है। अपने मनको शान्त रखना ही संभव और सफल प्रयत्नका मार्गदर्शन अपने मामाधीन कर्तव्य है। उस समय उस अपहृत वस्तुके संबन्धमें मनमें किसी प्रकारकी उत्कण्ठाको स्थान देकर कर्तव्यहीन चंचल नहीं होजाना चाहिये । चांचल्य कर्तव्यका विन्न है ।। अथवा-- दुसरेके हाथकी बात के संबन्धमें उत्कण्ठा या स्वरासे काम मत लो। दूसरा अपनी परिस्थिति से विवश होकर कभी कभी उसमें देर भी कर सकता है ! ऐसे समय उसे अपनी अधीरता दिखाकर चंचल तथा म मत करो । प्रत्येक काम करने के निराले ढंग तथा सुभाते होते हैं उनका ध्यान रखकर इस संबन्ध में धीरतासे काम लो और शान्तिसे तीक्षा करो। (पापांके धन का दुरूपयोग ) असत्समद्धिरसद्भिरेव भुज्यते ।। ४९३ ।। चुरोको सम्पत्ति (या बुरी सम्पत्ति ) बुगहीकी भोग्य बना करती है। विवरण--- गहित उपायोल उपार्जित धनक! कु. और कुकर्ममें श्य होना अनिवार्य होता है। पर- पोदा, चोरी, उत्कोच, अनुचित लाभ, वचन, अपहरण आदि उपाय धनागमनके गति उपाय हैं। गर्हित उपायसि प्राप्त धनका निन्दित में व्यय होना अनिवार्य है। उचित उपायोसे आया धन ही उचिन कार्यों में व्यय होता है । सिद्धान्तपूर्वक उपार्जित चनका सिद्धान्तपूर्वक गय होना अनिवार्य है। वृद्ध चाणक्य ने कहा है-- २९ चाणक्य.)
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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