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________________ मानव सुख चाहता है विषय में जो मनुष्यका अज्ञान है वही तो उसकी बंधनकी स्थिति है । सुखदुःख के विषय में मनुष्यका अभ्रान्त ज्ञान ही उसकी मुक्तिकी स्थिति है । जीवित देह इन्द्रियभोग्य साधनोंकी अनुकूलतापर निर्भर है । देहरक्षाका जो असाधारण अभिप्राय है वह भोग भोगना नहीं किन्तु अक्षयसुख या मोक्ष पा लेना है । मानवका देह भोगसाधन न होकर मोक्षका ही साधन है । भोग और अशान्ति या भोग और अतृप्ति अथवा भोग और मानसिक असन्तोषका नित्य साथ है । बन्धन मानव-जीवनका लक्ष्य नहीं ४४६ | मानवका मन बन्धनका स्वाभाविक विरोधी तथा मुक्तिका स्वाभाविक पक्षपाती है । बन्धनमें रहना मानवदेहके लक्ष्यसे विरोध करनेवाली स्थिति है । भोगप्राशिके लिये देह-रक्षा करना मनुष्यका कर्तव्य नहीं है । किन्तु अक्षय, अमर, सनातन, नित्य, अद्वैत सुखका अधिकारी बननेके लिये देवरक्षा करना मनुष्यका कर्तव्य है । मनुष्यको देह-रक्षा के लिये जीवनोपकरणोंका संग्रह करना पडता हैं । परन्तु उसे इस संग्रह सुख-दुःखका वरण अनिवार्य रूप से करना पडता है। मनुष्यका साधन-संग्रहरूपी कसे सुखदुःखों में से किसी एकको उत्पन्न किये बिना नहीं रहता। निर्वाण, मोक्ष या दुःखनिवृत्ति ( किसी भी नामसे कह लीजिये) इसी बात है कि देव धारणमात्र के लिये किये जानेवाले कर्मको दुःखोसाइक न बनने देकर सुखोपादक बनाकर रक्खा जाय । इस काम के लिये यह बात सही रहनी चाहिये कि देव रक्षाका उद्देश्य क्षुद्र सुख न होकर अक्षय सुख है । जब मनुष्य देहरक्षा के उद्देश्य मोक्षनामक अक्षयसुखको तो अपनी दृष्टिसे बाहर खड़ा कर देता है और देहको ही भोक्ता बनानेकी भ्रान्ति कर लेता है, उस समय मनुष्यका सुखसाधन संग्राहक कर्म लक्ष्यच्युत होकर सुख-साधन-संग्राहक न रहकर भोग-संग्राहक होजाता है। 1 यह तो सब जानते हैं कि भोगाकांक्षाका कोई अन्त नहीं है । भोग्यसंग्रह जिस मात्रासे किया जाता है वह उसी मात्रा में भोगाकांक्षारूपी
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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