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________________ चाणक्यसूत्राणि आगकी आहुति बनकर भोगानिका ही प्रज्वालक बनता चला जाता है । भोगानिको भोगेन्धनों से तृप्त या निर्वापित नहीं किया जा सकता । इसे तो भोगाकांक्षा के परित्याग से ही बुझाया जा सकता है । स्पष्ट बात यह है कि मनुष्यका मन भोगाकांक्षाको ही दुःख तथा उसके त्यागको ही सुखके रूप में जान ले तब ही सुखदुःखातीत मोक्षधर्मपर आरूढ हो सकता है । वह उस समय देह-रक्षा के लिये जो भी पुरुषार्थ करता है, वह क्योंकि विवेकके नेतृत्व में होता है इस कारण वही सच्चा पुरुषार्थं होता है । इसके विपरीत जो पुरुषार्थ विवेकहीन होता है वह भोगाकांक्षी मानवके लिये भ्रान्त सुखान्वेषण के रूपमें उसे बींध डालनेवाला अनन्त दुःख - जाल बन जाता है । ४४२ भौतिक अभावों को अपने अदस्य भौतिक प्रयत्नोंसे दूर करनेका सामधीन संतोष कमाकर मानसिक दुःखका अपने विवेकसे अन्त कर डालना ही दुःखोंकी पूर्ण चिकित्सा है। पुरुषार्थ तथा विवेक दोनों ही मानव के लिये समान रूपसे अपेक्षित हैं । विवेकके विना केवल पुरुषार्थ से मनुष्यको शान्ति मिलनी संभव नहीं है। विवेक पुरुषार्थकी मर्यादा बना देता है । निर्ममयि पुरुषार्थ करनेवाला मनुष्य अपनी विषयाभिलाषाको बढाता चला जाता और जीवनभर दुराशाकी दावाग्निमें झुलसता रहकर अन्तमें नष्ट होजाता है । पुरुषार्थपर विवेकका शासन रहने से मनुष्यको असीम, अनुचित या शक्तिबाह्य पुरुषार्थ करने की भ्रान्त इच्छा ही नहीं होती । व्यवहार - भूमिसे दूर खडे हुए पुरुषार्थद्दीन कोरे विवेकके पास कर्मक्षेत्र न होनेसे वह मनुष्यको यथार्थ सुख उत्पन्न करके नहीं दे सकता । यही बात ईशोपनिषद् में इस प्रकार कही है अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते । ततो भूयइव ते तमो य उ विद्यायां रताः ॥ ( ईशावास्य ) जो केवल पुरुषार्थ में रत हैं, वे घोर अन्धेरे में धक्के खाते हैं। उनसे भी अधिक धक्के वे खाते हैं जो ( कोरे अव्यावहारिक ) ज्ञानमें मस्त पडे रहते हैं । ज्ञानके साथ तो व्यवहार - भूमि चाहिये और व्यवहार - भूमिके
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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