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________________ चाणक्यसूत्राणि जीवनभर अपनी वर्तमान स्थिति से ऊँचे सुखवाली स्थितिकी इंदमें मारामारा फिरा करता है । ४४० पर्वतयात्रीको निरंतर दीखती चली जानेवाली अगली अगली पर्वतमालाओं के समान सुखान्वेषी मानवको एकसे एक अच्छे सुखोंके आकर्षण दीखते चले जाते हैं और उसके मनमें दाव - दाइ प्रज्वलित करते चले जाते हैं। सांसारिक सुखभोगोंकी अन्तिम स्थिति या उनसे पूर्ण तृप्ति नामकी कोई अवस्था संसार में नहीं है। सुखभोगों की कोई सीमाको इयत्ता या मर्यादा नहीं है। यही देखकर भोगी प्राणीने समस्त भौतिक सुखोंके प्रतीक के रूपमें ऐन्द्रपद या मरनेके पश्चात् मिलनेवाले स्वर्गकी कल्पनाके रूपमें मानवके संसार-तापष्ठ हृदयको मिथ्यासान्खना देनेका एक निष्फल प्रयत्न किया है। मनुष्य सुखका ययार्थ रूप न समझकर सुखविषयक अंधी भावनाके पीछे मारा-मारा फिरता है । उसकी इस वृथा भटकका कारण उसका सुखविषयक अज्ञान ही है । पाठान्तर देहं त्यक्त्वा ऐन्द्रपदं न वाञ्छन्ति । संसारी लोग संसारी सुख त्यागकर देवराजका पद तक नहीं चाहते ! ( मनकी बन्धनहीन स्थिति दुःखोंकी एकमात्र चिकित्सा ) दुःखानामोषधं निर्वाणम् ॥ ४८५ ॥ मोक्षलाभ करते हुए जीवन बिताना ही दुःखोंका एकमात्र प्रतिकार है । विवरण -- निर्वाण ( अर्थात् प्रयत्न या तत्वज्ञानसे दुःखोंका अंत कर डालना ) ही दुःखोंकी औषध है । सुखदुःखसे अप्रभावित स्थिति लेकर उदार, वीर, व्यवहारकुशल, प्रशस्त जीवन बिताना ही दुःखोंकी यथार्थ चिकित्सा है । वन्धन से मुक्त होजाना या अबद्ध रहना ही निर्वाण या मुक्ति है । बन्धन और मुक्ति दोनों सापेक्ष शब्द हैं। बन्धन या मुक्ति परस्परविरोधी मानसिक स्थितियोंके दो नाम हैं । बन्धन और मुक्तिका परस्पर वध्यघातक सम्बन्ध और वध्यघातक सम्बन्धमूलक सहभाव है। सुखदुःख के
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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