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________________ इंद्रियनिग्रह जीवन की विशेषता ___४३१ (इन्द्रियनिग्रह जीवनकी परमविशेषता ) तपासार इन्द्रियनिग्रहः ॥ ४७५ ॥ जितेन्द्रियता ही तपस्याकी सार ( सर्वस्व निचोड, जान या प्राण ) है। विवरण- मनुष्योंकी, लोगोंकी तथा राजकर्मचारियों की ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय उनके कर्तव्य-पालनमें विघ्न डालनेवाली मोग-लालसानों की पूर्ण उपेक्षा करने लगी हों, वे अपनी बालसाओं को कर्तव्य-पालनका विघ्न न बनने देती हों, वे उन्हें कर्तव्य-पालनसे रोकने में असफल होने कगी हों, यही उन ( राज्याधिकारियों ) की ( जप, तप, योग, ध्यान, भजन, कीर्तनरूपी) समस्त तपस्याभोंका निचोड है। यदि मनुष्यों राजकर्मचारियों या लोगों के जीवन में कर्तव्य हार या दब गया हो और भोगलालसा या इन्द्रिय. लोलुपता प्रबल हो गई हो तो उनकी सारी तपस्या फूटी कौडीके भी मूख्यकी नहीं रहती। वनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति रागिणां । गृहेऽपि पंचेन्द्रियनिग्रहस्तपः ॥ अनुत्सिते कर्मणि यः प्रवर्तते । निवृत्तरागस्य गृहं तपोवनम् ॥ अनिन्द्रियविजयी विषयानुरागी लोग वोंके एकान्तों में भी दोषों की क्रीडास्थली बन जाते हैं। यदि मनुष्य घरमें रहकर या जीवनरक्षार्थ उद्योग करता हुआ इन्द्रियोंपर वशीकार पाकर रहे और उन्हें अपने सिद्धान्तका वध न करने दे तो वह तप कर रहा है । जो मनुष्य अनिन्दित माचरण कर रहा है और ग्यवहारको ही परमार्थ बनानेमें लगा हुआ है उस निवृत्तराग पुरुषका तो पारिवारिकोंसे भरपूर घर ही एकान्त तपोभूमि बन जाता है। __ तपोवन किसीको तपस्वी नहीं बना देता। तपोवनमें जा बसनेसे कोई तपस्वी नहीं बन जाता। किन्तु तपस्वी लोग समाज-कल्याणकारी कर्तव्य के माह्वानसे जब जहां जाते और रहते हैं तब वहीं उनका तपोवन बन जाता
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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