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________________ ४३० चाणक्यसूत्राणि विवरण- मनुष्यकी प्रकृति ससे सदा ही कर्म करनेकी प्रेरणा देती रहती है। मनुष्य चाहे या न चाहे कर्म तो उसे विवश होकर करना ही परता है। उसे तो केवल कर्मकी नीति-निर्धारण करने की स्वतंत्रता है। विचारशील मनुष्यको अपनी कर्म करनेकी प्रवृत्तिपर अपने मानव-जीवनके लक्ष्यका पूर्ण नियंत्रण रखकर ही अपनी कर्मप्रवृत्तिको व्यावहारिक रूप लेने देना चाहिये, नहीं तो अपनी उस लक्ष्य-विरोधी कर्म करने की प्रवृत्तिको लक्ष्यानुकूल मार्गमें परिवर्तित कर डालना चाहिये और लक्ष्यारुढ रहना चाहिये। (स्वामिनिन्दा अकर्तव्य ) यमनुजीवेत्तं नापवदेत ॥४७४॥ मनुष्य अपने उपजीव्य (जिसके सहारे जीविकार्जन करता हो उस ) की निन्दा न करे। विवरण-- ऐसा करनेसे जीविकाका ग्याघात होता है । यह समस्त संसार धन, पुण्य, धर्म, जीविका भादिके प्रसंगोंमें उपकार्य-उपकारक तथा ऊंचमीच भावसे परस्पर बँधा रहकर ही निर्विघ्न चल सकता है। उपजीन्यकी विन्दासे उपजीवि तथा उपजीम्यका यह संबंध टूटकर जीवनयात्राका विघ्न बन जाता है। ऐसे अनिष्टकारी प्रसंगोंसे बचनेका एकमात्र उपाय वाक्संयम है। क्या बोलना, क्या नहीं बोलना ! यह परिणाम तक सोचे बिना एक भी वाक्य न बोलनेसे इस प्रकारके संकटोकी उत्पत्ति स्वयमेव रुक जाती है। वाणीपर विजय पानेसे मनुष्य विश्व-विजय पा लेता है। यदीच्छसि वशीकर्तुं जगदेकेन कर्मणा। परापवादसस्येभ्यो गां चरन्ती निवारय ॥ यदि तुम एक ही कामसे विश्व-वीकार करना चाहो तो अपनी वाणीरूपी गौको परनिन्दारूपी दूषित सस्य मत खाने दो।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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