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________________ ४२४ चाणक्यसूत्राणि अपने हाथों में मा फंसी हुई बासुरी शक्तिके घमंडमें भाकर लोकनिंदाका र नहीं मानते । ये लोग जनमत व्यवसायी चाटुकार पत्रकारोंके स्तुतिलेखोंको ही अपने राज्याधिकारका समर्थक तथा जनमतको दबाकर रखने. वाली भव्यर्थ शक्ति मानकर निर्भर होकर यथेच्छ अत्याचार करके प्रजाको जर्जरित कर डालते हैं । मनुष्य पहले तो दुष्ट स्वभाव बना लेता है और फिर सस स्वभावके अधीन होकर उसीका दीनदास बनकर रहने लगता है। यह मानवजीवनका कैसा निकृष्ट पहल है कि वह जानता हुभा भी दुराभ्यासवश पापमें हाथ डालनेसे अपनेको रोकता नहीं है । मानव कैसा निःसार, कितना पामर, कितना तुच्छ और कितना घृण्य बन चुका है कि अपने मापको भूल करने से रोकनेका सत्साहस तक खोबैठा है। भले बुरेकी पहचान तो सब हो मनुष्योंको है । फिर भी संसारमें भला करने तथा बुरा छोडनेकी सुबद्धिका प्रायः अभाव पाया जाता है । लोग जानते और भली प्रकार जानते हैं कि दूसरेके घर, उद्यान, क्षेत्र आदिमें विना उचित अधिकारके नहीं जाना चाहिये फिर भी जाते हैं। लोग जानते हैं कि राजशक्तिको हाथमें लेकर राज्याधिकारका दुरुपयोग करके उससे व्यक्तिगत स्वार्थीका साधन नहीं करना चाहिये, फिर भी लोग कार्या. र्थियोंपर राजशक्तिका दबाव देकर अन्यायपूर्वक उपार्जन करना नहीं छोरते । मानवकी यह प्रवृत्ति मानवजाति के भयंकर अधःपतनका दुष्ट उदा. हरण है। इसका अर्थ हुआ कि साधारण मानव अपने ऊपरसे संयम खोबैठा है। फलं पापस्य नेच्छन्ति पापं कुर्वन्ति यत्नतः। फलं पुण्यस्य चेच्छन्ति पुण्यं नेच्छन्ति मानवाः ॥ लोग पापके फलोंसे तो घृणा करते परन्तु पाप बडे यत्नसे करते हैं। लोग पुण्योंका फल तो चाहते हैं परन्तु पुण्य करना नहीं चाहते । सोचिये तो सही कि मानवका कितना अधःपतन होचुका है।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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