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________________ असंयमने समाजका भ्रष्टाचार ४२३ ( परगृहप्रवेश अकर्तव्य ) परगृहमकारणतो न प्रविशेत् ॥ ४६७ ॥ विना उचित कारण तथा विना वैध अधिकारके दूसरेके घर में प्रवेश न करे । विवरण - मनुष्य गृहस्वामी की प्रवेशाज्ञा, प्रगाढ परिचय या सुपुष्ट विश्वास होनेपर ही पर-गृह-प्रवेश करे । इन परिस्थितियोंके विना परगृह-प्रवेश संकटपूर्ण तथा अपमानकारी होता है । घर तो उपलक्षण है । दूसरेके स्थान, द्रव्य, शस्य-क्षेत्र, उद्यान आदि में भी प्रवेशानुमति पाये विना जाना अनुचित है। इनमें प्रवेशका अर्थ इनमें से कुछ लेना है | अननुमत, भदत्त, भवैध, स्वखद्दीन वस्तुको लेना चोरी है । धर्मशास्त्रकार तो परद्रव्य चुरानेकी भावनाको भी चोरीमें गिनते हैं । पाप भावना में ही होता है कर्ममें नहीं । 1 ( असंयमने समाजको भ्रष्टाचारी बना दिया है ) ज्ञात्वापि दोषमेव करोति लोकः || ४६८ || लोग अपनी सत्य स्वाभाविक बुद्धिसे अपने कामको बुरा समझते हुए भी परद्रव्य- हरणादि रूप अपराध कर बैठते हैं । विवरण - यहांतक कि राज्यसंस्थाको हथिया बैठनेवाले देशके गिनेचुने चोटी के लोग भी राज्याधिकारका आस्वाद चखते ही अपनी मर्यादा भूल जाते हैं और राष्ट्रकी धरोहर के चोर, डाकू, लुटेरे, लम्पट, ठग बनने में राजशक्तिका जानबूझकर दुरुपयोग करके विधानका भंग करते, संविधानकी प्रतिज्ञाको पददलित करते, 'पयोमुख विषकुम्भ' बनकर जनताको झूठे आश्वासन दे देकर मिथ्याचार करते हैं । 1 ये लोग जनता के अविश्वास भाजन बननेका कोई डर नहीं मानते । ये जनता के अपने दुराचारोंसे परिचित होजानेपर भी निर्लज होकर धुआँधार व्याख्यान दे देकर अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनते फिरा करते हैं । ये लोग
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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