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________________ ३३८ चाणक्यसूत्राणि - दीघौं बुद्धिमतो बाहुः । राजद्रोहको दमन करने में समर्थ होना ही राजसिंहामन धारण करने की योग्यता है। पाठान्तर-- सुदूरमपि दहति राजाग्निः । पाठान्तर-- सुतमपि दहति राजाग्निः। राजा अपराधी पुत्रतकको दण्ड देता है। अन्यों का तो कहना ही क्या ? ( राजदर्शनका आचार ) रिक्तहस्तो न राजानमभिगच्छेत् ।। ३७४ ॥ राजाके पास रीते हाथ जाना चाहिये । विवरण--- समग्र देशका हितसाधन करनेमें रत राजा समस्त राज्यकी सबसे मूल्यवान् माननीय, अभिनंदनीय तथा प्रोत्साहनीय सम्पत्ति है। प्रजाहितकारी राजाके राजकाज में समर्थन, प्रोत्साहन तथा सहयोग देकर कृतार्थ होना प्रजामात्रका स्वहितकारी कर्तव्य है । इस दृष्टि से अपनी भौतिक पाक्तिको राष्ट्र के सदुपयोगके लिये सुयोग्य राजाको सौंप देना उसपर कोई कृपा नहीं, किन्तु अपने ही हितमें सहयोग देना है । इसलिये राजदर्शन राजभक्तिसूचक उपहारके साथ होना चाहिये और यह उपहार औपचारिक न होकर राष्ट्र की आवश्यकता पडनेपर अपनी भौतिक शक्ति राज्यको सहर्ष सौंप देने की अपनी प्रस्तुतताका सूचक होना चाहिये । वृद्ध चाणक्यने __ “ रिक्तपाणिर्न सवत राजानं श्रोत्रियं गुरुम्।" भक्तिसूचक उपहारके बिना राजा, वेदज्ञ बाह्मण, तथा पूज्य पुरुषों के पास न जाना चाहिये । राजाका राष्ट्रव्यापी राजकार्यों में न्यन रहना अनिवार्य है। राजाके पास इतना समय नहीं होता कि लोग बिना कर्तव्यके संबन्धके भी उसके पास जाते आते रहें । राजदर्शनार्थी लोग कर्तव्य के संबन्धसे ही भसके सम्मुख उपस्थित होने के अधिकारी होसकते हैं । केवल दर्शन करना
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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