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________________ राजशक्तिका व्यापक कर्मक्षेत्र "" बनाये रखना प्रजाका स्वहितकारी कर्तव्य है । राजा ईश्वरकी भांति अपनी समस्त प्रजा में महंभाव रखकर उसके सुखदुःखका अभिन्न साथी बनजाता है। ऐसे प्रत्यक्ष हितैषी राजाकी कर आदिसे पूजा, प्रजा के लिये श्रेष्ठ भगवत्है। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार पूजा प्रजाः पुत्रानिवौरसान् " राजा प्रजाको अपने औरस पुत्रोंके समान पाले । अपनी समस्त प्रजा में सत्यनिष्ठा बनाये रखना और असत्यनिष्ठाको निरुत्साहित करते रहना ही राजाका देवस्व है तथा यह उसका प्रत्यक्ष देवत्व है। इसी अर्थमें भार्य राजनीति में राजाको समस्त देवोंका अंशावतार माना गया है । राजसिंहासनको सुशोभित करनेवाले ऐसे सुयोग्य राजाको राज्याधिकार देना प्रजाके ही अधिकाउसे हैं । जो राजा प्रजाकी सम्मति से सिंहासनारूढ हुआ है उसे सर्वोच्च पूज्य स्थान देना प्रजाका स्वहितकारिणी सम्मतिको ही पूजना है । पाठान्तर -- न राज्ञः परा देवता । ३३७ ( राजशक्तिका व्यापक कर्मक्षेत्र ) सुदूरमपि दहति राजवन्हिः || ३७३ || राजाकी क्रोधाग्नि राज्यके सदूर कौने कौने में पहुंचकर राजद्राहियोंको दग्ध करनेमें समर्थ होती है । विवरण -- राजा अपनी दूरदृष्टिसे राजद्रोहियोंको दूर-दस्तक देखता रहता है । राजाके पास छिपाकर अशान्ति उत्पन्न करनेवाले देशद्रोहियों को उचित दण्ड देनेवाली दूरगामिनी शक्ति रहती है। इसलिये रहती है कि राष्ट्रका प्रत्येक सच्चा नागरिक राजा राजदण्डको धारण करनेवाले प्रति. निधिके रूपमें देशभर में सर्वत्र, सब समय प्रहरीका रूप लेकर नियुक्त रहता है । पापियोंका उन्मूलन करने में राज्यसंस्थाकी सहायता करना नागरिकोंका स्वहितकारी कर्तव्य है । राजाको इन राष्ट्रसेवक नागरिकों के द्वारा राजनियम भंग करनेवालका समाचार मिल जाता है। राष्ट्रसेवक सच्चे नागरिक लोग ही राजाके बुद्धिसम्पन्न सुदीर्घ बाहुचल हैं । २२ ( चाणक्य. )
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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