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________________ ३१० चाणक्यसूत्राणि रहती है वहीं वीर कहाता और संग्राम में विजयी बनता है । अपने लक्ष्यपर स्थिर रहना ही अक्रोधकी स्थिति है । क्रोध स्वयं लक्ष्य भ्रष्टता 1 निज शान्तिकी सुरक्षा ही विश्वके संपूर्ण संग्रामोंमें सुरक्षित रक्खे जाने योग्य विजयी स्थिति है । भौतिक शक्तिकी अनुचित इच्छा ही पराजित स्थिति है । यह इच्छा अपनी रुकावटको देखते ही भडक उठती है और क्रोध बनजाती है यही बात गीता के शब्दों में 'कामात् क्रोधोऽभिजायते' कामसे क्रोधका जन्म होता है। भौतिक शक्तिके प्रयोगसे अनुचित ढंगसे लाभान्वित होजानेकी इच्छा ही क्रोध है । यह भौतिक शक्तिकी अभावग्रस्तता से पीडित अवस्था होनेके कारण निर्बल स्थिति है । अजेय मानसिक स्थितिमें क्रोधको कहीं स्थान नहीं है । अजेय मानसिक स्थिति निश्चित विजयवाली, शक्ति तथा उल्लास से परिपूर्ण स्थिति है । अपनी कामनाके मार्गको हटानेका आग्रह ही क्रोधका रूप लेलेता है । जो लोग अपनी अनुचित इच्छाओं के विजेता होते हैं, अक्रोध उन्हीं की मानसिक स्थितिका नाम हैं । अक्रोधशील लोग भौतिक शक्तिकी अल्पतासे अप. नेको निर्बल अनुभव नहीं करते । वे शस्त्रास्त्रोंसे विश्वविजयी न होकर मनोबलसे विश्वविजयी होते हैं । ( बुद्धिविजय उदीयमान मानवका सबसे पहला काम ) ( अधिक सूत्र ) मतिमुत्तिष्ठन् जयति । उन्नतिशील मनुष्य, अपने अक्रोधके कारण, अपनी बुद्धिको अपनी गंभीर विचारशक्ति से अभिभूत कर के समुन्नत रखता है । विवरण -- उन्नतिशील मनुष्य अपनी बुद्धिको नीचाभिगमन नहीं करने देता । वह उसे क्रोधादि दोषोंसे अभिभूत नहीं होने देता । ( क्रोधपर कोप करना कर्तव्य ) ययपकारिणि कोपः कोपे कोप एव कर्तव्यः ॥ ३५१ ॥ उन्नतिशील मनुष्य, अपने अक्रोधके कारण, अपनी बुद्धिको अपनी गंभीर विचारशक्ति से अभिभूत करके समुन्नत रखता है ।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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