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________________ २०८ चाणक्यसूत्राणि यह पाठ निम्न कारणोंसे असंगत है-दो भिन्न कर्तव्य एक क्षणमें एक जैसा महत्व नहीं रखसकते । कर्तव्यशास्त्रका यह एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है कि प्रत्येक वर्तमान क्षणमें एक ही कर्तव्य यहच्छासे मभ्रान्त रीतिसे मनुष्य के सम्मुख उपस्थित होता है । कर्तव्यशास्त्र के इस महत्वपूर्ण सिद्धान्तको ध्यानमें रखनेसे वर्तमानके लिये सबसे अधिक महत्त्वपर्ण एक ही कर्तव्य पूर्ण स्वीकृतिका अधिकारी बनकर आता है। वह अपने क्षेत्रमें दूसरे किसी कर्तव्यका समानाधिकार कभी स्वीकार नहीं करसकता। कर्तव्यका दृष्टिकोण सन्देहयुक्त न होकर अभ्रान्त होना चाहिये । कर्तव्यके इस सभ्रान्त दृष्टिकोणके सम्मुख सन्दिग्ध कर्तव्य स्वयं ही अकर्तव्य रूपमें निर्णीत होजाता और परित्यक्त होने योग्य बनजाता है। केवल मसंदिग्ध कर्तव्य ही कर्तव्यरूपमें स्वीकृत होने योग्य होता है । इस दृष्टि में "वा" वाला पाठ अग्राह्य है। __(बिगडे कर्मका स्वयं निरीक्षण ) स्वयमेवावस्कन्न कार्य निरीक्षेत ॥ २२८॥ स्वयं विगडे या दूसरों के विगाडे कामको (दूसरोंकी आँखोंसे न देखकर ) अपनी ही आँखोंसे देखे और उसे सुधारे। विवरण- जो काम किसी विघ्न के कारण पम्पन्न न हो रहा हो, या विफल हो रहा हो, उसे अपनी ही आँखोसे देखना चाहिये । दूसरों के निरीक्षण में उपेक्षाका अंश होना अत्यधिक संभव है । कतव्य कर्ताका हार्दिक प्रेम पाये बिना पूर्ण होता ही नहीं । कर्मके पूणांग होने के लिये उसे कांके हार्दिक प्रेमके स्पर्श की अनिवार्थ पावश्यकता होती है। दूसरे लोग दूसरों के फर्तव्यको अपना हत्प्रेम देने में प्रमाद भूल या अपावधानी बरते यह नितान्त स्वाभाविक है। इनके प्रमादसे काम बिगड़ जाता है जो बिगड हो जाना चाहिये। पराये हाथोंसे काम बिगडनेका यही कारण होता है कि उसे कर्ताका हार्दिक प्रेम प्राप्त नहीं होता। इसलिये ज्यों ही तुम्हारे सामने कोई यम उपस्थित हो त्यों ही उसके पूर्णांग होने की स्वयं व्यवस्था करो। राजा लोग उपस्थित कौंको स्वयं देखें ।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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