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________________ २०० चाणक्यसूत्राणि मनुष्य विवरण - क्षुधा के उद्दीप्त होनेपर ही भोजन करनेवाला जीर्णभोजी कहता है। भोजन पेटकी आगकी माँग होनेपर ही करना चाहिये, जिह्वाकी माँग से नहीं । भोजनके नियतकालसे पहले भोजन न करना चाहिये । यह स्वभाव रोगजनक है । आयुर्वेद में कहा है --- जीर्णे तु भोजनं कुर्यान्नाजीर्णे तु कथंचन । अपक्कभोजिनं व्याधिः समाकामति निश्चितम् ॥ स्वस्थ रहनेका इच्छुक पूर्व भोजन के जीर्ण होचुकने पर ही भोजन करे अपक्व भोजीपर व्याधियों का आक्रमण निश्चित रूपमें होता है । आयुर्वेदोक्त पद्धति से भोजन में ऋतुके अनुसार परिवर्तन करते रहकर जीर्णभोजी बने रहना चाहिये । अकालमें भोजन भी त्यागना चाहिये अप्राप्तकाले भुंजानोऽप्यसमर्थतनुर्नरः तांस्तान् व्याधीनवाप्नोति मरणं चाधिगच्छति ॥ 11 भोजनका नियतकाल भानेसे पहले भोजन करनेवाला मनुष्य निर्बल होजाता है । उसे शिरोरोग आदि व्याधि आघेरती हैं और वे बढ़तीबढ़ती मौतका कारण बनजाती हैं । उद्गारशुद्धिरुत्साहो वेगोत्सर्गो यथोचितः । लघुता क्षुत्पिपासा च यदा कालः स भोजने ॥ PO क्षुत्संभवति पक्वेषु रसदोपमलेषु च । काले वा यदि वाऽकाले सोऽन्नकाल उदाहृतः ॥ रसदोषमलोंका परिपाक होचुकनेपर समय या असमय जब कभी भूख लगे वही अन्न- भोजनका योग्य काल है । उद्गार ( डकार ) ठीक आने लगी हो, उत्साह हो, मलमूत्रका यथोचित रिस्सरण होचुका हो, शरीर में लघुता ( हलकापन ) हो, भूख-प्यास हो ये सब भोजनकाल अर्थात् रसादिके परिपाकके लक्षण आयुर्वेद में वर्णित हैं ।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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