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________________ अजीर्ण में भोजनकी हानि २०१ (वार्धक्यमें व्याधिको उपेक्षा अकर्तव्य ) जीर्णशरीरे वर्धमान व्याधि नोपेक्ष्येत ।। २२१॥ रुग्ण, वृद्ध, रोगजीर्ण, निबल देहमें बढती व्याधिकी उपेक्षा न करे। विवरण- देहमें व्याधि उत्पन्न होजाना ही शरीरको जीर्णता है। मनुष्य व्याधिकी उपेक्षा करके कुपथ्य अर्थात् विपरीत आहार-विहारसे व्याधिको बढनेका अवसर न दे । रोगको निर्मूल करडालना ही रुग्ण मनु. ज्यका तात्कालिक कर्तव्य है । बालस्य में भाकर व्याधिको तुच्छ मानकर उपेक्षा करना हितावह नहीं है। धातुवैषम्यसे उत्पन्न हुई अवस्था 'व्याधि' कहाती है। यह देह सत्यदर्शन, ज्ञानलाभ तथा सच्चा आनन्द पानेका साधन है। यह देह संसार-सागर पार करनेकी छोटोसी भिद्यमान क्षणिक नौका है। इसके द्वारा मनुष्य को असत्य, अज्ञान और आध्यात्मिक, आधि. दैविक आधिभौतिक दुःखसागर पार करना है। इतने महत्वयुक्त साधन देहको कर्मक्षम बनाकर रखना मानवका पवित्र कर्तव्य है। धमथिकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम् । रोगास्तस्यापहर्तारः श्रेयसो जीवितस्य च ॥ आरोग्य ही धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्षरूपी चारों पुरुषार्थोका मूल है। रोग, मनुष्य के भारोग्य, कल्याण तथा जीवन तीनोंका अपहरण करता है। इसलिये पथ्यसेवन तथा औषधोपचारसे रोगों का शमन करके देहको कर्मक्षम बनाये रखने में उपेक्षा न करनी चाहिये । पाठान्तर-शरीरे वर्धमानो व्याधिोंपेक्ष्यत । जीवनार्थी लोग शरीरमें वृद्धि पाती हुई व्याधिकी उपेक्षा न करें। ( अजीर्णमें भोजनकी हानि ) अजीर्णे भोजनं दुःखम् ॥ २२२ ।। अजीर्णमें भोजन ग्रहण करना पाकस्थलीको अनिवार्य रूपसे रागाकान्त और दुःखी बनाडालना है।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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