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________________ "नीरोग रहनेका उपाय १९९ प्रत्येक कर्तव्य में कर्तव्यभ्रष्ट होना अवश्यंभावी होता है । अपनी शरीर-रक्षा तथा बाह्य भौतिक परिस्थिति दोनोंमें कर्तव्यशील बने रहना कर्तव्यनिश्चायिका बुद्धि के ही अन्तर्गत है । हितं मितं मेध्यं चाश्नीयात् । भोजन हित, मित तथा मेध्य होनेपर ही स्वास्थ्य के लिये लाभप्रद होता है । पाठान्तर - मितभोजनः स्यादस्वस्थः । यदि मनुष्य अस्वस्थ हो तो वह स्वास्थ्यके पुनरुद्धार के अनुकूल भोजन करे | मित भोजन या अभोजन ही पशुओंको प्रकृतिमाताका सिखाया हुआ आयुर्वेद है। रोगी की पाकस्थली स्वस्थ के समान पचाने में असमर्थ होजाती है । उस दश में स्वस्थ व्यक्तिका भोजन भी रोगी के लिये अपरिमित होने से रोगवर्धक बनकर विषवत् त्याज्य होता है । पथ्यमप्यपथ्याजीर्णे नाश्नीयात् ।। २१९ ।। अपथ्य के कारण अजीर्ण होगया हो तो पथ्यको भी त्याग देना चाहिये । विवरण- रुग्ण पाकस्थलीको, भोजन पचानेके सामर्थ्यका पुनरुद्धार करने का अवसर देनेके लिये पथ्यको भी त्यागकर ( अर्थात् उपवास करके ) विश्राम देना लाभदायक होता है । ( अधिक सूत्र ) भक्ष्यमप्यपश्यं नाश्नीयात् । रुग्णावस्था में स्वाभाविक खाद्यके भी अपथ्य होजानेपर उसे न खाना चाहिये । ( नीरोग रहनेका उपाय ) जीर्णभोजिनं व्याधिर्नोपसर्पति ।। २२० ॥ व्याधि जीर्णभोजके पास नहीं फटकती ।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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