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________________ १९८ चाणक्यसूत्राणि उतना ही लेना चाहिये जितना शरीर-रक्षाके लिये मावश्यक हो अधिक नहीं। मनुष्यको शरीर-रक्षाके लिये मावश्यक हित, मित, मेध्य भोजन ही ग्रहण करना चाहिये । निरामिष भोजन आयुष्कर तथा रोगहारक है । यथे. च्छाहारी भोगलोलुप मनुष्य रोगी होते हैं। ऐसे भोक्ताओंको लाख वार धिक्कार है जो जिह्वालोल्यसे अहित अपरिमित तथा अपवित्र भोजन करते हैं। "अजीर्णे भोजनं विषम्" प्रथम गृहीत भोजनका परिपाक न होचुकनेपर पुनः भोजन ग्याधिके उत्पादनके द्वारा विषके समान प्राणहारक होता है। भोजन सामिष, निरामिष भेदसे दो प्रकारका होता है । निरामिष भोजन मायुष्कर तथा रोगनाशक होता है । सामिष भोजन बलवर्धक होनेपर भी मामिषवाले प्राणीके रोगोंसे दूषित होनेके कारण रोगजनक होता है। स्वास्थ्य ही भोजनकी अनुकूलता प्रतिकूलताकी कसौटी है। भोजन पाकस्थलोके सामर्थ्य के अनुसार होने पर ही शरीरके लिये पौष्टिक होसकता है। शरीरकी आवश्यकता पूरा करना पाकस्थलीका काम है । भोजन करनेवाला मनुष्य चक्षु, नासिका तथा जिह्वाके अनुमोदनसे भोजन ग्रहण करता है । अपरिमित भोजनपर नियंत्रण तब ही रह सकता है, जब चक्षु, नासिका तथा जिह्वाके अनुमोदनपर स्वास्थ्यविज्ञानका शासन रहे । स्वास्थ्यविज्ञानका शासन न रहे तो अपरिमित भोजन शरीरका घातक तथा कोरसाहका नाशक होजाता है। आवश्यकता हो भोजनका परिमाण है। परिमित भोजन ही अमृत होता है । अपरिमित भोजन विष के समान मनिष्टकारी होता है। मनुष्य भोजन ग्रहणमें स्वादेन्द्रियका दास न बने, किन्तु स्वादेन्द्रियको ही स्वास्थ्यकी अनुकूलता तथा पथ्यापथ्य निर्णय करनेवाली विचारशक्तिका दास बनाकर रक्खे । मनुष्य के संपूर्ण जीवनपर विचारशक्तिका प्रभुत्व होने. पर ही उसके शरीर और मन दोनोंको कर्तव्याभिमुख रक्खा जासकता और उन्हें अकर्तव्योंसे रोका जासकता। विचारशक्ति मनुष्यको कर्तव्याभिमुख रखकर उसे जीवनसंग्राममें विजयी बनाये रखती है । जो असंयतभोजी भोजन ग्रहण करने में कर्तव्यभ्रष्ट होता है उसका अपने संपूर्ण जीवनमें
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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