SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कार्यसिद्धिमें हानि १६७ मनुष्य दुष्ट मित्रका विश्वास तथा कुदेश में जीवनको सुरक्षाकी आशा न करे । कुराजा और कुपात्रसे सदा ही भय बना रहता है। असाधुयोगा हि जयान्तराया, प्रमाथिनीनां विपदा पदानि । ___ असत्संग विजयी जीवनका विघ्न तथा विनाशक विपत्तियोंका कारण होता है। पाठान्तर- अविनब्धेषु विश्वासो न कर्तव्यः। विषं विषमेव सर्वकालम् ॥ १८८॥ जैसे विष सदा विष ही रहता है, कभी अमृत नहीं होता जैस विष कभी अपना स्वभाव नहीं बदलता इसी प्रकार अवि. वासीस्वभाववाला मनुष्य कभी विश्वास योग्य नहीं बना करता। ( कार्यसिद्धि में बैरीका महयोग हानिकारक) अर्थसमादाने वैरिणा संग एव न कर्तव्यः ॥ १८९॥ कार्य-संपादनमें शत्रुओं से किसी प्रकारका संपर्क न करना चाहिय । पाठान्तर ---- अर्थसामान्य चरिणां संसगों न कर्तव्यः । सामान्य प्रयोजन वाले कामें वरियों का संपर्क बचाना चाहिये । { अधिक सूत्र ) आर्याथमेव नीचस्य संसर्गः ।। आर्य अर्थात् प्रभुक कार्यके लिये ही नीचोंके साथ संबंध किया जासकता है। विवरण- राज्यसंस्था राजा ही प्रभुका स्थान लिथे हुए है । परन्तु सजाका भी तो एक प्रभु है । समन राष्ट्र राजाका प्रभु है । राष्ट-कल्याण लिये राजा तथा राज्य अन्य सेवकोंका कभी न कभी नीचरे साथ संबंध होना अनिवार्य होता है । उस विकट संबंध के समय भी प्रजा-हितको मुख्यता देकर उसे सुसंपन्न बनाये रखना ही सच्चे सेवकका ध्येय होता है। उस समय उसका कर्तव्य होता है कि उसके किसी कामसे नीचको नीचताको भूल कर भी प्रोत्साहन न मिल जाय तथा राजकार्य में विघ्न उत्पन्न न होने
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy