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________________ १६८ चाणक्यसूत्राणि पाये । साधारण नियम यही है कि नीचोंके साथ किसी भी काम में संबंध रखना उचित नहीं है । " हीयते हि मतिस्तात हीनैः सह समागमात् ।" हीन लोगों के साथ संबंध रखते रहनेसे बुद्धि उन्हीं जैसी हीन होजाती है। (वैरी विश्वासका अपात्र) अर्थसिद्धौ वैरिणं न विश्वसेत् ।। १९० ॥ उद्देश्य-पूर्तिमे वैरीका विश्वास मत करो। विवरण- शत्रुपर विजय करना ही विजिगीपुका उद्देश्य होता है । यही उद्देश्य विजिगीषकी स्थितिको सार्वदिक संग्रामकी स्थिति बना देता है। समका कर्तव्य हो जाता है कि शत्रके धोके में न आने के लिये सर्वदा सावधान रहे। उसे यह अविचलित रूपमें समझ रखना चाहिये कि शत्र कभी भी मित्र नहीं होसकता। यदि कभी शत्रकी पोरसे मित्रताका प्रस्ताव माये तो उसे सोचना चाहिये कि जो व्यकि एक दिन शत्रुताचरण करनेमें ही अपना स्वार्थ समझ रहा था, वह आज तुम्हारा मित्र क्यों बनने जा रहा है ? उसे इस प्रस्तावके आते ही तुरंत समझ जाना चाहिये कि वह माज मेरा मित्र बनने में अपना निश्चित स्वार्थ देख रहा है। वह अपने स्वार्थके दबाव से ही तो पहले शत्र था और आज उसीके दबावसे मित्रताका प्रस्ताव कर रहा है । आज अपने स्वार्थके दबावसे मित्र बनने वाला वास्तव में आज भी शत्र ही है। सच्चा मित्र तो वही होता है जो स्वार्थकी मलिनतासे अतीत रहकर हृदयके सत्यनिष्ठारूपी अमृतमय बन्धनमें माबद्ध होकर सुदृढ मित्रताके बन्धनको अपनालेता है। सच्चे ही सच्चोंके, ज्ञानी ही ज्ञानीके मित्र हो सकते हैं। मिथ्याचारी अज्ञानी. ज्ञानीसे कभी प्रेम नहीं कर सकता। सत्य, असत्य या ज्ञानाज्ञानमें परस्पर वध्य-घातक संबंध है। इन सब तथ्यों को कभी न भूलकर शत्रकी दिखावटी मित्रताको शत्रताका ही भावरणमा मानकर उसपर अविश्वास रखकर उसके षड्यंत्रको व्यर्थ करना ही विजिगी. षुका विजय-कौशल है। शत्रुका विश्वास न करनेका अभिप्राय उससे यह कह देना नहीं है कि मैं तुम्हारा विश्वास नहीं करता किन्तु यही मभिप्राय है कि उसे धोके में रखते
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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