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________________ चाणक्यसूत्राणि विपत्ति विक्रमहीनको दबा लेती हैं। विपद्ग्रस्तका भावी विनष्ट होजाता है । निर्भविष्यका हल्का ( भोछा ) होजाना सुनिश्चित है | हल्का मानव राज्यश्रीके योग्य नहीं रहता | पाठान्तर -- निरुत्साहो दैवं परिशपति ॥ १६६ उत्साहद्दीन व्यक्ति समस्त असफलताओंकी जननी अपनी उत्साहद्दीनताको दोष न देकर देव या भाग्यको कोसा करता है । अपुरुषार्थ या अनुत्साह ही उसका दोष है 1 ( पुरुषार्थीका कर्तव्य ) मत्स्यार्थीव (मत्स्यार्थिवज्) जलमुपयुज्यार्थं गृहणीयात ॥ १८६ ॥ जैसे मत्स्यार्थी जलमें घसने के संकट में पडकर ही अपना मछलीरूपी स्वार्थ पाता है इसी प्रकार पुरुषार्थी मानव उठे. संकट में कुदे, सफलतारूपी अपने दैवको विघ्न बचाबचाकर सुरक्षित करता चले और अपना काम वनाले । ! विवरण- जो लोग सफलतारूपी देवको पाना चाहें, वे विघ्नको हटा - हटाकर अपना काम बनायें। विघ्नवारणके बिना देवप्राप्ति असंभव है। मत्स्यचज्जलमुपयुज्यार्थ ( विश्वासके अपात्र ) पाठान्तर ....... अविश्वस्तेषु विश्वासो न कर्तव्यः ॥ १८७ ॥ अपरीक्षित या अपात्र लोगोका विश्वास कभी न करो ! विवरण- करोगे तो निश्चित रूपसे हानि उठाभोग | कुपात्रसे सदा भय रहता है कि न जाने कब क्या कर बैठे : नीतिज्ञोंने कहा है कुसौहृदे न विश्वासो कुदेशे न प्रजीव्यते । कुराजान भयं नित्यं, कुपात्रे सर्वदा भयम् ॥
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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