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________________ सत्यकी महत्ता होती | मानवताकी दृष्टिमें मानसिक हानि ही सच्ची हानि होती है। भौतिक दानिलाभों के प्राकृतिक परिस्थिति तथा प्राकृतिक कर्तापनके अधीन होनेके कारण उनका मनुष्यके मानसिक हानिलामसे कोई सम्बन्ध नहीं है । मनुष्यका मानसिक हानिकाम तो उसके अपने ही कर्तृत्व के अधीन रहता है अविवेकीका सम्पूर्ण जीवनव्यवहार ही आत्मद्रोह होजाता है । आत्मद्रोह ही परिस्थिति अनुसार कभी कभी क्रोधका रूप धारण करलेता है । इसके विपरीत विवेकसम्पन्न व्यक्तिके सत्यप्रेमी तथा असत्यद्रोही होनेके कारण उसका असत्यद्रोह कभी कभी परिस्थिति के अनुसार क्रोध के रूपमें दीखनेपर भी उस क्रोधमें चित्तकी स्थिरता भी होती है, अखण्ड शान्ति भी रहती है, तथा आत्मकल्याणकी भावना भी अलुप्त बनी रहती है । दिवेकीका सम्पूर्ण जीवनव्यवहार सत्यनिष्ठा तथा असत्यद्रोहरूपी अक्रोध स्थितिमें अटल रहकर होता है । पाठान्तर - आत्मानमेव पीडयति on ( सत्यकी महत्ता ) नास्त्यप्राप्यं सत्यवताम् || १४९ ।। १२५ सत्यधनसे सम्पन्न व्यक्तियोंके लिये कोई भी प्राप्तव्य वस्तु अप्राप्त नहीं रह जाती । हैं विवरण- सत्यको पाचुकना ही संसारकी सर्वश्रेष्ठ संपत्ति से संपन्न हो जाना | इस कारण सत्यनिष्ठोंको कुछ भी अप्राप्य नहीं रहता उनकी दृष्टिमें सत्य ही एकमात्र प्राप्तव्य वह वस्तु होती है, जिसे वे पा चुके होते हैं। उनकी बुद्धि उन्हें संसार की सर्वश्रेष्ठ वस्तु सत्यको प्राप्त करानेके उपयोग में आकर उन्हें स्वभावसे सत्य से मिलाये रखने तथा असत्यका त्याग कराने के काममें भाती रहती और अस्थायी मिथ्या वस्तुओं की कामनाके जालसे बचाती रहती है । उनकी बुद्धि उन्हें क्षुद्र अस्थायी उद्देश्योंकी ओरसे विमुख बना देती है ।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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