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________________ १२४ चाणक्यसूत्राणि इस सूत्र में किसी राष्ट्रशत्रु को अपराधी सिद्ध करके उसे दण्डित करने के ही लिय ही बुलाई हुई सभामें उसके विरुद्ध अनिवार्यरूपसे आवश्यक उसके व्यक्तिगत दोषोंकी आलोचनाका निषेध नहीं किया जारहा है। क्योंकि उस समय ऐसा करना वक्ताओंका अनिवार्य कर्तव्य होता है । पाठान्तर- यस्संसदि परदोषं वक्ति...... । (क्रोध करने से अपनी हानि ) आत्मानमेव नाशयति अनात्मवतां कोपः ॥ १४८ ।। असंस्कृत मनवाले अविवेकी लोगोंका क्रोध उन्हींके आत्म. कल्याणका विनाशक होता है। विवरण- हिताहितबुद्धि से शून्य लोग स्वभावसे सत्यद्रोद्दी तथा असत्यप्रेमी होते हैं । वे अपनी विपरीत बुद्धिसे जहां सचाई, स्वाभिमान , अपमानासहिष्णुता मादि उदार गुण देखते हैं, वहीं सत्यका सिर नीचा करने के लिये उसपर आक्रमण करते और असत्यमें लिप्त रहते हैं : इम प्रकार के लोगों का प्रत्येक माचरण सत्यद्रोह होता और मामघाती क्रोधका रूप धारण कर लेता है। सत्यसे सम्मिलित रहनेरूपी उदार स्थिति से वंचित रहना हो मनुष्य का भारमनाश है । यह उसका ऐसा विनाश है कि जो कभी कभी भौतिक उन्नतिका रूप धारण किये हुए भी हो सकता है। असत्य के अधीन न होना मनुष्यकी सामरक्षा है। यही विनाश तथा रक्षा अथवा महित और हितको मन्त्रान्त परिभाषा है। इस परिभाषा अनुसार विवेकहीन हृदयवाल पापी लोग अपने पीडितका कुछ न बिगाड कर सदा भएना ही माहित करते रहते हैं। ये लोग जिस सत्पुरुषपर आक्रमण करते हैं उसकी भौतिक परिस्थिति या देह के आक्रान्त हो जानेपर भी उसका साधुहृदय आक्रमणातीत तथा पतनातीत बना रहता है। उस पापीके क्रोधसे साधु पुरुषकी भौतिक हानि होती दीखनेपर भी उसकी कोई भी मानसिक हानि नहीं
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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