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________________ कठोर दण्डसे हानि : ११३ ( मृदुस्वभावसे हानि ) आश्रितैरप्यवमन्यते मृदुस्वभावः ॥ १२ ॥ मृदुस्वभाव (अर्थात् अपात्रोतकको प्रसन्न करके संसारभरका प्रेमपात्र बननेका महत्वाकांक्षी पात्रापात्रविवेकहीन अदृढ) मनुष्य अपने आश्रितोंस भी अनादर पाता है। विवरण- प्रबन्धके काममें अपात्रोंको डाटने तथा सुपात्रोंका मादर करनेकी दृढता मनिवार्यरूपसे होनी चाहिये । परन्तु ये मृदुस्वभावी लोग मनिवायरूपसे अपात्रोंसे चिपटते और सुपात्रोंसे त्यक्त हो जाते हैं। ___ प्रबन्धसम्बन्धी समस्यायें हो ऐसी होती हैं कि सबको प्रसन्न नहीं किया जा सकता । अन्यायतस्पर लोगोंको डाटना और रुष्ट करना ही पड़ता है। अन्यायपक्षको अनुत्साहित भसित ताडित और अवहेलित तथा न्यायपक्षको उत्साहित और अनुमोदित रखना ही राजाओंका जप, तप, सन्ध्या, भजन, पूजन तथा श्रेष्ठ भागवत आराधन है। बुरोंके भी भला बनना चाहनेवाले मृदुलोग सफल शासक नहीं बन सकते । प्रबन्धकको जो पापदमनका महायज्ञ करना पड़ता है उसके लिये उसे अपनी दृढ़ता और सत्यनिष्ठा नहीं त्याग देनी चाहिये । उसे अन्यायी पके सामने अपनी जोचित शक्ति प्रकट करनी चाहिये । ( लघु अपराध कठोर दण्डस हानि ) तीक्ष्णदण्डः सर्वैरुद्वेजनीयो भवति ॥ १४३ ॥ लघु अपराधम कठोर दण्ड देनेवाला शासका सवकी घृणाका पात्र तथा अपने प्रभावक्षेत्रमें उपद्रव खडा होनेका करण बन जाता है। विवरण- राजाको राष्ट्र में सुव्यवस्था रखने के लिये अपराधियोंको वध, अर्थग्रहण तथा शरीरताडन तीन प्रकार के दण्ड देने पड़ते हैं। यों तो दण्ड अपराधीको नित्य साथी है । अपराधीका अपराध करना ही दण्डको
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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