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________________ १०० चाणक्यसूत्राणि ( दैवी विपत्तियों के सम्बन्धमें कर्तव्य ) देवं शान्तिकर्मणा प्रतिषेद्धव्यम् ॥ १२३॥ भूकम्प, वज्रपात, जलप्रलय, झंझावात, राष्ट्रविप्लव तथा आततायीके आक्रमण आदि दैवी विपत्तियोंके दिनों में वुद्धिको स्थिर और शान्त रखकर उनका निवारण करना चाहिये। विवरण- बुद्धिमान् लोग दैवी विपत्तियोंसे घबराकर अपनी प्रति. कारबुद्धिको कुंठित न होने दें किन्तु अपनी स्वस्थ प्रक्षुब्ध बुद्धि का प्रयोम करके उसे टालनेका सुदृढ प्रयत्न करें और किसी भी रूपमें विपत्ति के सामने मात्मसमर्पण न कर बैठें। देवी विपत्तिमें मरना अनिवार्य हो तो विजयी होकर मरें; कायर होकर न मरें। बत्ती, पान, तैल तथा अग्नि सब कुछ होनेपर भी दीपक प्रबल वायुसे बुझ जाता है। सुदृढ विशाल पोत झंझावातके थपेडोंसे डूब जाता है। यह विपत्ति माकस्मिक दैवीविपत्ति है। दैवीविपत्तिके समय बद्धिको स्थिर रखनको आवश्यकता होती है। दैवी विपत्तिको स्थिरबुद्धितासे ही टाला जासकता हैं । विष्णुशर्माके शब्दों में- ' याते समुद्रेऽपि हि पोतभंगे सांयात्रिको वांछति तर्तुमेव । ' जब किसी पोतवणिकका पोत समुद्र में भग्न होकर डूबने लगता है तब वह अपनी बुद्धि के अनुसार तैरकर जीवनरक्षाके समस्त उपाय एक एक करके देखता और जिस किसी प्रकार सागरको पार करना चाहता है। इसी प्रकार बुद्धिमान लोग विपत्तिको सामने खड़ा देखकर घम. रायें नहीं । वे अपनी समस्त बुद्धिका प्रयोग करके उस दैवी विपत्तिको टालनेका मत्याज्य प्रयत्न करें और किसी भी रूप में निराश न हों। विप. त्तियाँ मनुष्योंसे अपना प्रतिकार करानेके ही लिये उसके सामने भाती हैं। धीरतासे उनका प्रतिकार ही उनका सदुपयोग है। भवितव्यताकी प्रतिकूलताके कारण उत्पन्न होनेवाली मानसिक अशा. न्तिको व्यर्थ करने का एकमात्र उपाय मनुष्यका स्थिरबुद्धि से शान्तिको
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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