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________________ कार्यगुप्तिकी अवधि ( कार्यगुप्तिकी मर्यादा) सिद्धस्यैव कार्यस्य प्रकाशनं कर्तव्यम् ॥१२१।। कर्मको किये जा चुकनेके अनन्तर ही उसे लोगोंको जानने देना चाहिये। विवरण- मसम्पन्न कार्यको जगविदित होने देनेसे उसका नाश, क्लेश तथा शत्रुको उसे बिगाडनेका अवसर मिलजाता है । इसलिये कार्य संपन्न होनेसे पहिले उसका ढिंढोरा पीटना नीतिहीनता है। इससे विघ्न बढ जाते और कर्ता भयोग्य कहलाने लगता है । पाठान्तर- सिद्धस्य कार्यस्य प्रकाशनं कर्तव्यम् । ज्ञानवतामपि देवमानुषदोषात् कार्याणि दुष्यन्ति ॥१२२॥ कभी कभी बहुतसे काम भवितव्यताकी प्रतिकूलतासे या किसी मानवीय त्रुटिसे दूषित हो जाने पर अधूरे रह जाते हैं। विवरण- भवितव्यताकी प्रतिकूलता होनेपर कर्म पूरा होनेसे पहले उसका ढिंढोरा पीटनेसे कर्ता निन्दित होजाता है । इसलिये काम पूरा होनेसे पहले उसे किसीको न जानने दे । वज्रपात, भूकम्प, महामारी जलप्रलय आदि देवदोष हैं । हिंसा, द्वेष, विरोधियोंके षडयन्त्र तथा अपनी भूल आदि काम बिगाडनेवाले मानुषदोष हैं। इनसे मनुष्यों के काम बहुधा बिगड जाते हैं । प्रत्येक काममें बिगडनकी संभावना रहती है। इसलिये काम पूरा होनेसे पहिले उसे बड़ी सावधानीसे गुप्त रखना चाहिये । बृहच्चाणक्यने कहा है--- विषमां हि दशां प्राप्य देवं गहयते नरः। आत्मनः कर्मदोषांश्च नैव जानात्यपंडितः॥ मनुष्य अपनी भूलके प्रभावसे कार्यविरोधी परिस्थितियोंको पाकर दैवको तो कोसता है परन्तु वह मूढ यह नहीं जानता कि मैंने अपनी किस भूलसे अपना यह काम बिगाडा है ।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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