SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 128
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दैवी विपत्तियों का प्रतिकार १०१ अपनाये रहना तथा उसे किसी भी अवस्थामें न छोडना है । इसका अर्थ यह हुआ कि यदि देवकी प्रतिकूलताकी आशंका, पुरुषार्थको व्यर्थ करनेका दु:साहस करना चाहती हो तो उसे व्यर्थ करनेवाला एकमात्र उपाय मनुष्यका स्थिरतासे अपनी शान्तिपर स्थिर रहना ही है । अथवा- देवसे आये भूकम्प, वज्रपात, विनाशकांधी, दुर्मिक्ष महामारी, राष्ट्रविप्लव आदि दैवी विघ्न हैं। उत्पन्न विघ्नोंका प्रतिकार करना तथा भावी अनिष्टोंको उत्पन्न होनेसे रोकना शान्ति है। जैसे कवचादि धारण करलेनेसे देहकी शस्त्रोंसे रक्षा होजाती है इसी प्रकार विशिष्ट उपा. योंसे देवी विघ्न भी शान्त किये जासकते हैं । जैसे संयमपूर्वक रहने और नियमपालनसे आयुकी वृद्धि, तथा असंयम और स्वेच्छाचारसे भायुका हास होता है, इसी प्रकार मनुष्य शान्तिकारक, पुष्टिदायक लौकिक वैदिक कर्मों के अनुष्ठानसे देवी विघ्नोपर भी विजय पासकता है । अथवा- देवके विरोधी होजानेपर ईश्वरोपासना आदि विशेष अनुष्ठानों द्वारा अपने कर्तव्यको ईश्वरार्पण करके फलनिरपेक्ष होकर अपना तात्कालिक कर्तव्य उत्साहमें भरकर करना चाहिये। ऐसे समय निराश होकर कर्तव्य. हीन नहीं होजाना चाहिये । दैवी आक्रमण भी विधाताको शुभेच्छासे ही मनुष्य के पास आते हैं । दैवी आक्रमण विधाताकी मूढ इच्छामात्र नहीं है । वे इसलिये आते हैं कि मनुष्य अपनी स्थितिको ईश्वरार्पण करना सीखे और उसकी ओर प्रवृत्त हो। अपनी अनुकल, प्रतिकूल परिस्थितियोंको ईश्वरार्पण कर देने से मनुष्य की अनन्त आत्मशक्ति. उद्दीप्त होउठती है । मनुष्यपर देवी माक्रमण इसीको उद्दीप्त करने के लिये होते हैं । दैवी आक्रमणोंका यह भाव नहीं होता कि मनुष्यकी भारमशक्तिको बुझा डाला जाय । यह सृष्टि मनुष्यसे निरर्थक छेडछाड कभी नहीं करती। उसकी प्रत्येक चेष्टाका मानवजीवनमें महत्वपूर्ण उपयोग होता है । " न मानुषात् श्रेष्ठतम हि किञ्चित्” (व्यासजी) मनुष्यसे श्रेष्ठ इस संसारमें कुछ भी नहीं है । मनुष्य इस संसारकी सर्वश्रेष्ठ वस्तु होनेपर भी अज्ञानवश अपनेको क्षुद्र मानने लगता है। मनुष्यका अहंकार ही उसका अज्ञान है जो उसे क्षुद्र मनवाता है।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy