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________________ ૨૮ चाणक्यसूत्राणि ( अनुपायज्ञोंके कर्मोंकी महत्वहीनता ) अज्ञानिना कृतमपि न बहु मन्तव्यम् ।। ११९ ॥ अज्ञानी कर्मकी सफलताको सफलता न मानकर उसे आक स्मिक घटना मानकर महत्व नहीं देना चाहिये । विवरण - अज्ञानियोंके कामोंमें अयश, अर्थनाश तथा दुःख होना अनिवार्य है । इसलिये राजा लोग निर्गुण लोगों के भरोसे सफलता के सपने न देखें | 1 याहच्छिकत्वात् कृमिरपि रूपान्तराणि करोति ॥ १२० ॥ जैसे घुनका कीडा भी पदार्थोंके आकार आकस्मिक रूपसे अबुद्धिपूर्वक बना देता है, जैसे उसके बनाये आकारोंसे उसकी निर्माणकुशलता प्रमाणित नहीं होती, इसी प्रकार स्वेच्छाचार अविवेक और अभिमृश्यकारितासे कभी कोई काम संयोगवश बन भी जाय तो भी उस अविमृश्यकारी कर्ताको उस कामका श्रेय नहीं दिया जासकता । विवरण - विवेकपूर्वक कर्म ही मानवकी विशेषता है। अविवेकपूर्वक किये कर्मकी सफलता काकतालीय न्यायवाली ( काकके बैठने से ताडके गिर जाने जैसी ) आकस्मिक घटना है। न तो यथेच्छ कर्म करनेमें कल्याण है और न कराने में कल्याण है । किन्तु शिक्षा तथा विवेकपूर्वक कर्म करनेमें ही मानवका कल्याण है । यथेच्छ कर्म करनेसे काम अधूरा रहजाता और निष्ट होता है । पाठान्तर -- यादृच्छिकत्वात् कृमिरपि रूपान्तराणि किं न करोति । क्या आकस्मिक रूप से रेखा बनानेवाला कृमि जैसा मूढ प्राणी भी भिन्न भिन्न आकार नहीं बना लेता ?
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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