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________________ निर्दोष कर्मोकी दुर्लभता विवरण- कार्यसिद्धि में प्राप्त माधनोंके सदुपयोगका जो महत्वपूर्ण स्थान है उसे ठीक ठीक समझना चाहिये । संसारके मूह लोग प्रायः कार्यसिद्धि के लिये अप्राप्त साधनों के पीछे तो भटकते हैं, परन्तु प्राप्त साधनोंके मूल्यको नहीं मांकते और उन्हें अनुपयुक्त पडा रहने देते हैं। कार्य कभी भी प्राप्त साधनोंके सदुपयोगके बिना सिद्ध नहीं होता। कार्य हाथ लगे साधनोंकी अवज्ञा, मनवधान, हेयबुद्धि, महत्वहीनताकी कल्पना सादि दोषों के कारण जैसा चाहिये वैसा नहीं होपाता । इसलिये मनुष्य काय हाथमें आते ही सबसे पहले मनको प्राप्त साधनोंके सदुपयोगमें अवहित करे तथा परिणाम निकलनेका समय आनेतक उसमें केन्द्रित रकम् । पाठान्तर- हस्तगतावमानात् कार्यव्यतिक्रमो भवति । (निदोष कर्मोकी दुर्लभता ) दोषवर्जितानि कार्याणि दुर्लभानि ॥ १०५॥ संसारमें निर्दोष कार्य विरल होते हैं। विवरण- संसार में निदोष ( अर्थात व्यक्तिगत क्षुद स्वार्थरहित तथा सार्वजनिक कल्याणमें अपना कल्याण देखने की भावनासे किये जानेवाले ) काँका प्रायः अभाव पाया जाता है। यदि समाजमें निदोष कर्म करनेवाली आखें खुल जाय तो उसमें सुखसंपत्तिकी मन्दाकिनी बहने लगे। प्रायः सारा ही संसार स्वार्थबुद्धिसे कलुषित होकर भचिन्ता तथा अविचारसे काम करता है । इसीलिये समाज में सुखोत्पत्ति न होकर दुःखोंकी ही उत्पत्ति हो जाती है । लोग अपनी क्षुद्र भापात दृष्टिकं कारण व्यक्तिगत स्वार्थोंके ही पीछे दौडते हैं। वे अपने अकल्याणमें प्रवृत्त होकर सच्चे कल्याणके सम्बन्धमें अंधे बने रहते हैं । संसारका बहुमत करके पछतानेवालोंका है । परन्तु सोचकर करनेवालोंका संसारमें प्रायः अभाव है। मनुष्यकी इसी टिसे संसारमें निदोष कर्म विरल होगये हैं। यदि मनुष्य सोचकर काम करे तो उसके काँका निदोष होना असंभव नहीं है । निर्दोर कर्तव्य कर. नेमें ही मनुष्य की मनुष्यताको सुरक्षा और समाजका सा कल्याण हो सकता है।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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