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________________ चाणक्यसूत्राणि इस बुद्धि से कर्तव्य के मध्य में कर्तग्यान्तर छेडना या भाल स्यके दुष्ट भोगके लिये कर्तव्यको स्थगित रखना दीर्घसूत्रता है। घण्टेभरके काममें दिनभर जितना समय न लगाना चाहिये । जब मनुष्य कर्तव्यको कर्तव्य नहीं सम. झता तब उसमें कर्तव्यभ्रष्ट रहने तथा उसे अति विलम्बसे करनेका दोष भाजाता है। नालसाः प्राप्नुवन्त्यर्थान् न शठा न च मानिनः । न च लोकरवाद् भीता न व ः श्वः प्रतीक्षकाः ।। आलसी, दीर्घसूत्री, शठ, मानी, लोकरवसे भयभीत तथा कल कलक प्रतीक्षामें कर्तव्यका समय खोनेवालोंके काम सिद्ध नहीं हुक्षा करते । (चवलचित्तताकी हानि ) न चलचित्तस्य कार्यावाप्तिः ।।१०३ ॥ चलचित्त ( अर्थात् अस्थिर, अदृद्ध मनवाले आदर्शहीन लक्ष्य भ्रष्ट) व्यक्तिके काम पूरे नहीं हुआ करते। विवरण- मनकी मस्थिरता, अदृढता, आदर्शहीनता, तथा लक्ष्यभ्रष्टतासे कार्योंका मध्य में ही व्याघात होकर कर्मफल अप्राप्त रहजाता है। समस्त कार्य मनके स्थिर होनेसे ही सुसंपन्न होते हैं। मनकी स्थिरतासे बुद्धिका विकास और उससे कार्य में दक्षता प्राप्त होती है। पधित्रता ही मनकी स्थिरता तथा अपवित्रता ही मनकी अस्थिरता है। मनको तत्वज्ञानसे परिचित रखना ही उसकी स्थिरताका एकमात्र उपाय है। गीताके शब्दों में न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते"। इस संसार में तत्वज्ञानसा पवित्र कुछ भी नहीं है। जीवन में से आरोपित वस्तुओंका बन्धन हटकर अनारोपित वस्तुका परिज्ञान होजाना ही तत्वज्ञान है । ( प्राप्त साधनोंके अनुपयोगसे हानि ) हस्तगतावमाननात कार्यव्यतिक्रमो भवति ॥ १०४ ।। हाथके साधनोंका सदुपयोग न करनेसे कार्यका नाश हो जाता है।
SR No.009900
Book TitleChanakya Sutrani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamavatar Vidyabhaskar
PublisherSwadhyaya Mandal Pardi
Publication Year1946
Total Pages691
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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