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________________ पञ्चम परिच्छेद । (१६६) अर्थापत्ति प्रमाण से यह बात सिद्ध हो जाती है कि "यह सब पापों का नाशक है तथापि इस सातवें पद के कथन का प्रयोजन (१) यह है, किइस पञ्च नमस्कार से प्रथम समस्त (२) पापोंका समूल (३) क्षय (४) होजाता है, तत्पश्चात् (५) नमस्कारकर्ता (६) के लिये सर्वोत्तम (७) मङ्गल होता है, यदि इस सातवें पद का कथन न करते तो यद्यपि पाठवें और नवें पद के वाक्यार्थ से पापों का नष्ट होना तो अर्थापत्ति प्रमाण के द्वारा समझा जा सकता था; परन्तु उनका समूल क्षय होना सिद्ध नहीं हो सकता था, देखो! नाश तीन प्रकार का होता है-क्षय, उपशम और क्षयोपशम, इन में से स. मूल नाश को क्षय कहते हैं, जैसा कि श्रीनन्दीसूत्र में कहा है कि "क्षयोनिमलमपगमः (८)" कि जिस के होने से फिर उम का उद्भव (९) नहीं हो सकता है, उपशम शान्तावस्था (१०) को कहते हैं, जैसा कि श्रीनन्दी सूत्र में कहा है कि "अनुद्रे कावस्थोपशमः (११)” शान्तावस्था वह है कि जिस में ( वस्तु वा कर्म का ) सामर्थ्य दबा रहता है, जैसे-अग्नि के अङ्गारोंको राख से दवा दिया जावे तो उन की उष्णता (१२) का भान (१३) नहीं होता है अर्थात् उन की उष्णता उपशमावस्था में रहती है, अतएव ऊपर डालेहुए तृण (१४) श्रादि को वह दग्ध (१५) नहीं कर सकती है, परन्तु राख के हट जाने से फिर वह अग्नि वायु संसर्ग (१६) से प्रबल होकर अपनी दहन क्रिया को करती है; ( इसी प्रकार से कर्मों की भी उपशमावस्था को जानना घा. हिये ) तथा क्षयोपशम उस अवस्था को कहते हैं कि जिस में ( वस्तु वा कर्म के ) एक देश (१७) का क्षय ( समूल नाश ) तथा दूसरे देश का उपशम ( शान्तावस्था ) हो जाता है, इस अवस्था को भी प्राप्त वस्तु वा कर्म कारण सामग्री को प्राप्त कर फिर वृद्धि को प्राप्त हो जाता है, तो यहां पर जो सातवां पद कहा गया है उस का प्रयोजन यह है कि इस पञ्च नमस्कार से समस्त पापों का उपशम तथा क्षयोपशम होकर उत्तम मङ्गल नहीं होता है १-तात्पर्य॥ २-सब ॥ ३-मूलके सहित ॥ ४-नाश ॥५-उसके पीछे॥ ६-नमस्कार करने वाला ॥ ७-लब में उत्तम ॥ ८-निर्मल नाश का नाम क्षय है। -उत्पत्ति । १०-शान्तिदशा ॥ ११-उद्रेक (प्रकट) अवस्था का न होना उपशम कहलाता है । १२-गर्मी ॥ १३-प्रतीति ॥ १४-तिनका ॥ १५-जला हुआ, भस्मरूप ॥ १६-पवनसंयोग १७-एक भाग। Aho! Shrutgyanam
SR No.009886
Book TitleMantraraj Guna Kalpa Mahodadhi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinkirtisuri, Jaydayal Sharma
PublisherJaydayal Sharma
Publication Year1920
Total Pages294
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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