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________________ श्री त्रिभंगीसार जी आपमें रमण करने वाला है इसलिए समय है। सर्व नयों के विकल्पों से अतीत परम शुद्ध है, केवल चैतन्य वस्तु है इसलिए केबली है । स्वानुभव में स्थित है इसलिए मुनि है। ज्ञान स्वरूप से ज्ञानी है, अपने ही स्वभाव में रहता है इसी से स्वभाव है । जो कोई साधक ऐसे स्वसमय में स्थिर होकर स्वानुभव करते हैं, वे ही निर्वाण को पाते हैं। १९. संमत्त, वंदना, स्तुति : तीन भाव गाथा - ६४ संमत्त सुद्ध दिस्टिं च, वंदना नित्य सास्वतं । अस्तुतिं सुद्ध दर्वस्य, त्रिभंगी दल निरोधनं ॥ अन्वयार्थ - ( संमत्त सुद्ध दिस्टिं च ) जो शुद्ध सम्यग्दृष्टि है अर्थात् जिसे निज शुद्धात्मानुभूति युत सम्यक्दर्शन - ज्ञान है वह ( वंदना नित्य सास्वतं) हमेशा अपने शाश्वत ध्रुव स्वभाव की वन्दना करता है (अस्तुतिं सुद्ध दर्वस्य) अपने शुद्ध द्रव्य स्वभाव की स्तुति करता है (त्रिभंगी दल निरोधनं ) इससे समस्त कर्मास्रव का निरोध होता है। विशेषार्थ - निश्चय सम्यग्दर्शन, निज शुद्धात्मानुभूति, संसार का नाश करने वाली है। जो शुद्ध सम्यग्दृष्टि हैं, वह हमेशा अपने शाश्वत ध्रुव स्वभाव सिद्धस्वरूप की ही आराधना, वन्दना,भक्ति करते हैं। अपने शुद्ध द्रव्य स्वभाव की महिमा गाते हैं, यही सच्चे देव की सच्ची पूजा, वन्दना, स्तुति है। जिससे समस्त कर्म क्षय होकर निर्वाण की प्राप्ति होती है । सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव जब अपना उपयोग स्वात्मानुभूति में नहीं जोड़ पाते हैं तब शुद्धात्मा की स्तुति, उसकी महिमा का वर्णन करते हैं तथा चिन्तन, मनन द्वारा वन्दना करके उपयोग को शुद्ध भाव में ले जाने की चेष्टा करते हैं, इससे समस्त कर्मास्रव का निरोध होता है । जो कोई मोह को जीतकर ज्ञान स्वभाव से पूर्ण अपने आत्मा का अनुभव करता है, उसे परमार्थ के ज्ञाता जित मोह साधु कहते हैं। इस स्तुति लक्ष्य आत्मा पर ही जाता है यह निश्चय स्तुति है। शरीर और आत्मा के व्यवहार नय से एकत्व है किन्तु निश्चय नय से नहीं है, इसलिए शरीर के स्तवन से आत्मा पुरुष का स्तवन व्यवहार नय से हुआ कहलाता ११८ ११९ गाथा - ६४ है: निश्चय नय से नहीं । निश्चय से तो चैतन्य के स्तवन से ही चैतन्य का स्तवन होता है, उस चैतन्य का स्तवन, शुद्धोपयोग स्वात्मानुभव द्वारा होता है । केवल आत्मा को लक्ष्य में लेकर आत्मिक गुणों का गाना निश्चय स्तुति है। शुद्धात्मा-सिद्धात्मा को अपने भावों में स्थापित करना सच्ची वन्दना है। जिसकी वन्दना व स्तुति की जावे उसके गुणों को अपने में प्रगट किया जावे, वह भाव वन्दना व स्तुति है । चेतना लक्षणम् आनन्द कन्दनम्, वन्दनम् बन्दनम वन्दनम् वन्दनम् ॥ शुद्धतम हो सिद्ध स्वरूपी, ज्ञान दर्शन मयी हो अरूपी । शुद्ध ज्ञानं मयं चेयानन्दनम्, वन्दनम् वन्दनम् ......... द्रव्य नो भाव कर्मों से न्यारे, मात्र ज्ञायक हो इष्ट हमारे । सुसमय चिन्मयं निर्मलानन्दनम्, वन्दनम् वन्दनम् ...... पंच परमेष्ठी तुमको ही ध्याते, तुम ही तारण तरण हो कहाते । शाश्वतं जिनवरं ब्रम्हानन्दनम्, वन्दनम् वन्दनम् ........ ॐ जय आतम देवा, प्रभु शुद्धातम देवा । तुम्हरे मनन करे से निशदिन, मिटते दुःख देवा ॥ ॐ जब . अगम अगोचर परम ब्रम्ह तुम, शिवपुर के वासी । स्वामी शिवपुर के वासी । शुद्ध बुद्ध हो नित्य निरन्जन, शाश्वत अविनाशी ॥ १ ॥ ॐ जय .. विष्णु बुद्ध महावीर प्रभु, तुम रत्नत्रय धारी । स्वामी रत्नत्रय धारी । वीतराग सर्वज्ञ हितंकर, जग के सुख कारी ॥ २ ॥ ॐ जय .. ज्ञानानन्द स्वभावी हो तुम, निर्विकल्प ज्ञाता । स्वामी निर्विकल्प ज्ञाता । तारण तरण जिनेश्वर, परमानन्द दाता ॥ ३ ॥ ॐ जय .. समय और आत्मा, जो द्रव्य कर्म, भाव कर्म, नो कर्म से रहित शुद्धात्म स्वरूप है उसे मेरा नमस्कार हो। जो शुद्ध सत्ता स्वरूप है, जिसका स्वभाव चेतना गुणरूप है, अपनी ही अनुभवन रूप क्रिया से प्रकाश करता है अर्थात् अपने को अपने से ही जानता है, प्रगट करता है । स्वत: अन्य जीवाजीव, चराचर पदार्थों को सर्व क्षेत्र, काल सम्बन्धी सर्व
SR No.009723
Book TitleTribhangi Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherTaran Taran Sangh Bhopal
Publication Year
Total Pages95
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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